डाल्फिन दिवस : गांगेय को बचाने के लिए..
डाल्फिन मूल रूप से समंदर में पाई जाने वाली जीव है. अठासी प्रजातियों में से केवल 4 प्रजातियां ही नदियों के मीठे पानी में पाई जाती थीं, लेकिन अब 3 ही अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब रही हैं.
![]() डाल्फिन दिवस |
वर्ष 2006 तक चीन की यांग्तजी नदी के मीठे पानी में बैजी नाम की डाल्फिन पाई जाती थी, जो अब लुप्त हो चुकी है. अब गंगा को छोड़कर सिर्फ सिंधु एवं अमेजन नदी में ही डाल्फिन पाई जाती है, जिसे भुलन और बोटा के नाम से जाना जाता है. गांगेय डाल्फिन को गंगा की पारिस्थितिकी को संतुलित रखने के लिये आवश्यक माना गया है.
गांगेय डाल्फिन हमारे देश का राष्ट्रीय जलीय जीव है और हर वर्ष 5 अक्टूबर को डाल्फिन दिवस और 2 से 8 अक्टूबर तक सप्ताह मनाया जाता है. वर्ष 1996 में इसे लुप्तप्राय प्राणी घोषित किया गया था. फिर भी इसके संरक्षण के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. वर्ष 1982 में इसकी आबादी 6000 थी, जो घटकर अब 1200 से 1800 रह गई है. गांगेय डाल्फिन को जुझारू जलीय जीव माना गया है, क्योंकि प्रतिकूल माहौल में भी यह जीने का माद्दा रखती है. तापमान में होने वाले बड़े उतार-चढ़ाव के साथ यह आसानी से सामंजस्य बैठा लेती है.
नेपाल में बहने वाली करनाली नदी में यह 5 डिग्री सेल्सियस तापमान को सह लेती है, वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में बहने वाली गंगा में यह 35 डिग्री सेल्सियस तापमान का आसानी से सामना कर लेती है. आमतौर पर यह गंगा और उसकी सहायक नदियों के संगम पर पाई जाती है, ताकि मुश्किल घड़ी में यह सहायक नदियों में अपना रैन-बसेरा बना सके. ध्यान रहे कि गंगा नदी में पानी कम होने पर यह सहायक नदियों में अपना अस्थायी घर बना लेती है. गांगेय डाल्फिन को छिछले पानी एवं संकरी चट्टानों में रहना पसंद नहीं है. इस तरह के स्वभाव के कारण यह गंगा की सहायक नदियों जैसे, रामगंगा, यमुना, गोमती, राप्ती, दिखो, मानस, भरेली, तिस्ता, लोहित, दिसांग, दिहांग, दिवांग, कुलसी आदि नदियों में रहना पसंद करती है. गंगा नदी में पाए जाने वाले डाल्फिन का प्रचलित नाम सोंस है. यह मीठे पानी में पाया जाने वाला जलचर है.
गंगा को कूड़ादान समझने के कारण इसमें खाद, पेस्टीसाइड, औधौगिक एवं घरेलू कचड़े का संकेंदण्रतेजी से बढ़ रहा है. जलीय प्रदूषण के कारण गांगेय डाल्फिन की आयु कम हो रही है. एक अनुमान के मुताबिक 1.5 मिलियन मीट्रिक टन केमिकल र्फटलिाइजर, 21000 टन टेक्निकल ग्रेड पेस्टीसाइड प्रतिवर्ष गंगा और ब्रहमपुत्र में प्रवाहित किया जाता है, जिसके कारण पॉलीक्लोरीनेटेड बाईफेनाइल्स (पीसीबी), हेक्साक्लोरोसाइक्लोहेकसन (एचसीएच), क्लोरोडेन कंपाउंडस, हेक्साक्लोरोबेंजेन (एचसीबी), परफ्लोरिनेटेड कंपाउंडस (पीएफसी) आदि की मात्रा नदी में सहनीय मात्रा से अधिक हो गई है, जो गांगेय डाल्फिन के मसल, किडनी, लीवर आदि के लिए घातक हैं.
आज जरूरत है कि इस जलीय जीव को संरक्षित करने की, जिसके लिए गंगा को पहले बचाना होगा. गंगा को बचाने के क्रम में किसी भी स्तर पर की गई लापरवाही गांगेय डाल्फिन के अस्तित्व के लिए खतरनाक हो सकती है. इस परिप्रेक्ष्य में डाल्फिन पार्क की स्थापना की जा सकती है. मछुआरे इस बात का ख्याल रखें कि वे मछली संकेंद्रण वाले इलाकों में मछली नहीं पकड़ें. शिकारियों पर शिंकजा कसा जाए. साथ ही, कांबिंग ऑपरेशन भी चलाया जाए, ताकि गांगेय डाल्फिन का शिकार करने से शिकारी गुरेज करें. पाकिस्तान में सिंधु नदी में पाई जानी वाली डाल्फिनों के लिए वर्ष 2000 में एक अभियान चलाया गया था, जिसके तहत भुलवश या जान बचाने के लिए नहर या सहायक नदियों में गई डाल्फिनों को सुरक्षित जगह पर लाकर उनका पुनर्वास किया गया था. भारत में भी ऐसे अभियान चलाने की जरूरत है.
इस तरह के उपाय भारत, खासकर के बिहार में भी किए जा सकते हैं, क्योंकि डाल्फिन बिहार में बहने वाली गंगा में सबसे अधिक संख्या में पाई जाती है. इस संदर्भ में आम आदमी को शिक्षित व जागरूक करना फायदेमंद हो सकता है. केंद्र व राज्य सरकार भी इस संबंध में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए. सिर्फ डाल्फिन दिवस व सप्ताह मनाने से सकारात्मक परिणाम नहीं निकलेंगे. वरना वह दिन दूर नहीं, जब गांगेय डाल्फिन भी चीन की नदियों में पाई जाने वाली बैजी डाल्फिन की तरह लुप्त हो जाएगी.
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