जीएसटी : मर्ज की पहचान में खोट

Last Updated 04 Oct 2017 04:34:38 AM IST

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने हालिया बयान में जीएसटी दरों की संख्या में कमी एवं अनुपालन नियमों में ढील देने के संकेत दिए हैं.


जीएसटी : मर्ज की पहचान में खोट

चौतरफा हो रही आलोचना के दबाव में यह बात किसी जुमले से कम नजर नहीं आ रही क्योंकि इस वक्तव्य में शर्त यह है कि ऐसा तभी किया जाएगा, जब जीएसटी लागू होने से पूर्व हो रही आय को राज्यों एवं केंद्र द्वारा हासिल कर लिया जाएगा.
पहले से ही दुरूह नियमों से पस्त व्यापारी वर्ग के लिए ये जुमला और भी भारी मुसीबत भरा है. किस फार्मूले के तहत ‘रेवेन्यू न्यूट्रिलिटी’ की गणना की जाएगी और क्या उसे सब राज्य मान लेंगे. यह बहुत अस्पष्ट है. सीधी सी बात यह है कि सिर्फ  आशा की किरण दिखाई जा रही है. दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में इस समय आई कमजोरी सिर्फ  नोटबंदी और जीएसटी के कारण ही नहीं बल्कि विदेश व्यापार क्षेत्र की उपेक्षा के कारण भी है. सच पूछिए अगर नोटबंदी और जीएसटी के बाद भी व्यापार यथावत चलता रहता तो बहुत चिंता की बात होती. यह बिल्कुल ऐसा होता, जैसे हैजे के इंजेक्शन के लगने के बाद बुखार का न आना.  किसी भी नकारात्मक स्थिति के होने के कारण के बारे में अगर आप जानते हैं तो वो उसका सकारात्मक पहलू होता है. यही बात वर्तमान आर्थिक वातावरण पर लागू होती है. वर्तमान में अर्थव्यवस्था की सुस्ती यह दर्शाती है कि दवा कारगर है. समानांतर टैक्स चोरी पर चलने वाले व्यवसायों पर चोट की गई है और उनमें आई सुस्ती से जो प्रभाव ग्रोथ पर पड़ा है, वो ही दृष्टिगोचर हो रहा है. कोई भी ऑपरेशन बिना कष्ट एवं कांट-छांट के नहीं हो सकता. इस तरह के आर्थिक निर्णयों में आर्थिक जोखिम के अलावा राजनैतिक जोखिम भी होता है. एक राजनेता अथवा सरकार के लिए ऐसा जोखिम बहुत घातक हो सकता है.

सरकार की वर्तमान आलोचना उसी जोखिम की नैसर्गिक परिणिति है. मगर आलोचकों को सही विषय पर आलोचना करनी चाहिए  सरकार की आलोचना इस बात की होनी चाहिए कि उसने निर्यात सेक्टर की उपेक्षा की. निर्यात की ओर समुचित ध्यान न दिया जाना अधिक चिंता का विषय है. आज हमारी  निर्यात बढ़ोतरी दर मात्र 3 प्रतिशत है, जो 2003-2008 में लगभग 18 प्रतिशत थी. हमारी जीडीपी का 20 प्रतिशत हिस्सा निर्यात से आता है.  विश्व में किसी भी देश में 12 प्रतिशत  से 15 प्रतिशत से अधिक वृद्धि के बिना मजबूत विकास संभव नहीं हुआ है. हमारे यहां जो अर्थव्यवस्था में गिरावट है, उसके प्रमुख कारणों में निर्यात को बढ़ावा न देना और इस क्षेत्र पर समुचित ध्यान न देना भी है. निर्यात को बिल्कुल बेसहारा छोड़ देना सबसे बड़ी गलती है, जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा. रुपये में आई मजबूती का कारण विदेशी कर्ज की बढ़ी हुई सीमा है न कि  निर्यात से कमाई गई विदेशी मुद्रा. पूर्व वित्त मंत्रियों द्वारा उठाए गए मुद्दे भी लचर हैं क्योंकि वो असली कारणों से भटके हुए मुद्दे हैं. ये तो कोई अपरिपक्व भी कह देगा; जीएसटी या नोटबंदी की वजह से मंदी है. मगर वो मंदी तो सच पूछिए पॉजिटिव बात है. निगेटिव बात यह है कि विदेश व्यापार की अवहेलना हुई है हमारे देश में. और आश्चर्य तो इस बात का है कि परफॉरमेंस को तरजीह देने वाली सरकार ने मंत्री महोदया को तरक्की दी, जो इस व्यापार वृद्धि के न होने के लिए सीधे सीधे उत्तरदायी थीं.
बात यहीं समाप्त नहीं होती. बल्कि जीएसटी के क्रियान्वन में भी सबसे अधिक नुकसान विदेश व्यापार का ही हुआ है. नियम इस तरह के हैं कि निर्यातकों को वर्किग कैपिटल में बहुत परेशानी झेलनी पड़ रही है. ये मुद्दा न यशवंत सिन्हा जी  ने उठाना उचित समझा और न चिदंबरम जी ने.  ऐसा इसलिए, क्योंकि इसमें कोई राजनैतिक फायदा नजर नहीं आता.  फायदा जनता को सीधे प्रभावित करने वाले विषयों को उठाने में है, क्योंकि वो बड़ा वोट बैंक है. और इसलिए असली मुद्दे पीछे छूट गए हैं. मगर ये कोई नहीं सोचता कि एक लघु उद्योग मालिक का नुकसान सैकड़ों-हजारों गरीब कामगारों का नुकसान भी होता है. सरकार की इस दृष्टिभ्रम का कारण है विदेशी मुद्रा भंडार का रिकॉर्ड स्तर और तेल के दामों में टैक्स जोड़ कर वितीय घाटे का नियंत्रण. हकीकत में ये दोनों बातें स्थाई नहीं हैं.  अमेरिकी ब्याज दरें और तेल के दाम कभी भी इस आत्मविश्वास को डिगा सकते हैं. वितीय घाटे के नियंत्रण में होने के साथ साथ मुद्रास्फीति का भी कम रहना काफी राहत की बात है. मगर अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के लिए सरकारी क्षेत्र में काफी तेजी से खर्चे बढ़ाने होंगे ताकि अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ सके. ऐसा करने से वित्तीय घाटे पर नियंत्रण कमजोर हो जाएगा.
इस समय वित्तीय घाटा पिछले साल के 3.5 फीसद की तुलना में 3.2 फीसद रहने की उम्मीद है, जो कि 2014-15 में 4.1 फीसद था.  लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण होगा तेल के दामों का रुख. मानसून कुल मिला के ठीक-ठाक रहा है. इस वर्ष  विद्युत्त उपलब्धता बढ़ी है. विदेशी निवेश रिकॉर्ड स्तर पर है. सबसे बड़ी चिंता रोजगार को लेकर है और यहां वही बात फिर से दोहराते हुए मैं कहूंगा कि विदेश व्यापार को तरजीह नहीं दी गई. आयात-निर्यात छोटे एवं मध्यम उद्योगों को संजीवनी देता है. रुपये की मजबूती से निर्यात को नुकसान पहुंचा है, जिसकी भरपाई आवश्यक है. एक चिंता डब्ल्यूटीओ में दिए गए उस वादे को लेकर भी है, जो कहता है कि एक निश्चित प्रति व्यक्ति सतत आय के रहने पर कुछ ड्यूटी संबंधित एक्सपोर्ट रियायतें समाप्त करनी होंगी. इधर आर्थिक वार्तालापों में इस तरह की चर्चा का अभाव है कि निर्यात का लक्ष्य प्राप्त करना कितना दुष्कर है. और मार्च 2020 तक 900 बिलियन डॉलर हासिल कर पाना बहुत असंभव है.
हस्त निर्मिंत वस्त्र, चमड़ा उद्योग, रत्न एवं आभूषण के निर्यात से रोजगार आता है. जीएसटी ने इनपुट क्रेडिट की समस्या को निर्यात क्षेत्र में अधिक बढ़ाया है. निर्यातोन्मुख आयात पर टैक्स देकर उसे वापस लेने में पहले के मुकाबले काफी अधिक समय लग रहा है. दूसरी तरफ निर्यात एक समयबद्ध प्रक्रिया है  जीएसटी के तहत टैक्स वसूलने वाला यदि देरी से टैक्स जमा करता है तो निर्यातकों का इनपुट टैक्स क्रेडिट अटक जाता है. उम्मीद है आने वाले समय में सरकार इन कमियों का संज्ञान लेगी और जल्द ही सुधारात्मक कदम उठाए जाएंगे.

अनिल उपाध्याय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment