नजरिया : कुछ तो गड़बड़ है!
भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में पहली बार किसी मुद्दे पर घमासान मचा दिखाई दे रहा है.
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घमासान अर्थव्यवस्था को लेकर है. और उससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि इसकी ललकार पार्टी के भीतर से उठी है यानी इसे विरोधियों की रूटीन आलोचना या हताशा कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन हैरानी की बात है कि अर्थव्यवस्था की चेतावनी जैसे मुद्दे पर सरकार के गंभीर जवाब के बजाय उसे व्यक्तिगत आक्षेपों और आरोपों-प्रत्यारोपों में सानने की कोशिशें की जा रही हैं.
सवाल एक सौ चौंतीस करोड़ लोगों से जुड़ा है, और जवाब केवल एक व्यक्ति को दिया जा रहा है. एक तरफ देश है, दूसरी तरफ व्यक्तिगत अहम. एक तरफ मुद्दा है, तो दूसरी तरफ मुद्दे से पलायन. दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही तरफ ऐसे लोग हैं, जो या तो वित्त मंत्री के रूप में देश चला चुके हैं, या देश चला रहे हैं. सवाल है कि क्या पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को देश की अर्थव्यवस्था पर सवाल नहीं उठाना चाहिए था? और जवाब केवल यह है कि लोकतंत्र में यह सवाल ही बेमानी है. तो फिर, पूर्व वित्त मंत्री की आशंकाओं-आंकड़ों और दलीलों के जवाब में सरकार की उन आर्थिक नीतियों का हवाला दिया जाना चाहिए था, जो देश को विकास के रास्ते पर ले जा रही हैं, या फिर अर्थव्यवस्था की बात ताक पर रख कर व्यक्तिगत आक्षेपों की पोटली खोल देनी चाहिए थी. 80 साल की उम्र में नौकरी मांगने का आक्षेप कुछ इसी तरह का है.
मोदी राज के तीन से ज्यादा वर्षो में अर्थव्यवस्था सुधार के ढेरों दावे किए गए. इन्हें बाहर से चुनौती मिली, लेकिन नकार दी गई. लेकिन जब सरकार को भीतर से ही चुनौती मिली तो मुद्दे ने गंभीर रु ख ले लिया. पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था को लेकर जो चिंता जताई, उससे सरकार कठघरे में खड़ी नजर आने लगी. जैसी की अपेक्षा थी, सीधे-सीधे निशाने पर आए वित्त मंत्री जेटली अगले ही दिन जवाब लेकर भी आ गए. लेकिन व्यक्तिगत आक्षेप ने अर्थव्यवस्था में सुधार के उनके दावों को हल्का कर दिया.
वास्तव में, आंकड़ों की दुनिया में मोदी सरकार पर जो गाज पहली बार गिरी थी, यशवंत सिन्हा की जबान से वही बयां हो रही थी. पिछले वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर 5.7 प्रतिशत पर आ गई थी. इसका असर वार्षिक अनुमान पर भी पड़ा जो 7.1 प्रतिशत पर आ गया. राजनीतिक रूप से यह इसलिए महत्त्वपूर्ण अवधि थी, क्योंकि यही वह समय था, जब नोटबंदी लागू की गई थी. लेकिन मोदी सरकार और बीजेपी ने इसका प्रचार सकारात्मक रूप में किया. संयोग से नोटबंदी के बाद हुए चुनाव ने भी सरकार के दावों पर मुहर लगा दी. वैसे, अर्थिक सर्वेक्षण करने वाली संस्थाओं की बात करें, तो जीडीपी का गिरना अप्रत्याशित नहीं था. आईएमएफ ने पहले ही विकास दर का अनुमान 8 प्रतिशत से घटाकर 7.2 प्रतिशत कर दिया था. आर्थिक विशेषज्ञ भी मान कर चल रहे थे कि नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था की चाल सुस्त रहेगी. लेकिन यह भी बता रहे थे कि आगे सब कुछ ठीक रहने वाला है. सब कुछ समझते हुए भी भाजपा और उसकी सरकार सच स्वीकार करने से बचते रहे. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने तो आखिरी तिमाही के नतीजे को नोटबंदी के बजाय तकनीकी कारणों वाला बता डाला. कुछ इस अंदाज में मानो वह बड़े अर्थशास्त्री हों. लिहाजा, जब सिन्हा ने सरकार को कठघरे में खड़ा किया, तो शाह पर भी हमला करने से नहीं चूके.
भाजपा, उसकी सरकार और वित्त मंत्री अपनी पार्टी के नेता के कठघरे में क्यों घिरे नजर आ रहे हैं? इसका केवल एक ही कारण है. वे भ्रम में जीना चाहते हैं. सरकार और उसके वित्त मंत्री नोटबंदी के बारे में कुछ भी नकारात्मक सुनने को तैयार नहीं हैं, जबकि बेहतर होता कि वे इसे तात्कालिक रूप से नकारात्मक ही मान लें, तो आने वाले दिनों में और ज्यादा बेहतर बदलाव की कोशिश और उम्मीद की जा सकती है. लेकिन अगर सरकार नोटबंदी के नकारात्मक असर को नकारेगी और जीडीपी गिरेगी, बेरोजगारी बढ़ेगी, उत्पादन के क्षेत्र के इंडीकेटर अर्थव्यवस्था की सुस्ती बताएंगे तो आर्थिक नीति को कसौटी पर कसा ही जाएगा. फिर इसकी आलोचना भी सुननी ही पड़ेगी.
माना जा सकता है कि बीजेपी अध्यक्ष शाह को अर्थव्यवस्था की अधिक जानकारी नहीं है. मगर वित्त मंत्री से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी. वह जब अपने पूर्ववर्ती का जवाब देने आए तो लगा कि अपने दमदार तकरे से देश को संतुष्ट कर लेंगे. लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता और अर्थव्यवस्था की जानकारी रखने वाले यशवंत सिन्हा पर व्यक्तिगत आक्षेप करने के सिवा कुछ खास नहीं बता सके. 80 साल का नौकरी खोजने वाला जैसे आक्षेप लगा कर उन्होंने इतिश्री कर ली. जेटली से ज्यादा तार्किक विरोध तो यशवंत को अपने बेटे जयंत का ही झेलना पड़ा. वह भी वित्त राज्यमंत्री रह चुके हैं. जयंत ने कहा कि सीमित जानकारी के आधार पर बड़े निष्कर्ष नहीं निकाले जाने चाहिए. वास्तव में यही उचित जवाब है. लेकिन इन आंकड़ों और तथ्यों को ध्यान में रखा जाए तो यशवंत सिन्हा की आलोचना पर ध्यान देना जरूरी है. सिर्फ सिन्हा ही नहीं, एक अन्य पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम के आरोपों पर गौर करना भी सरकार के लिए जरूरी है. मगर इसके उलट प्रचार का जोर इस बात पर रहा कि मोदी सरकार में ज्यादा नौकरियां सृजित हो रही हैं, लेकिन वे दिख नहीं रही हैं. ऐसा क्यों हो रहा है? इसका जवाब तैयार है कि मोदी सरकार ‘जॉब सीकर नहीं, जॉब क्रिएटर यूथ’ पैदा कर रही है. कहने का मतलब यह है कि बीजेपी और उसकी सरकार कह रही है कि जो आंकड़े हैं, उन पर भरोसा मत कीजिए और जो आंकड़े नहीं हैं, उन पर भरोसा कीजिए. इस पहेली पर भी लोग बिना सोचे-समझे एतबार करने को तैयार हैं, लेकिन अपनी बात पर सरकार टिकी तो रहे.
दुनिया भले ही पहेलियों पर भरोसा कर लेगी, लेकिन यशवंत सिन्हा जैसे लोग इस पर भरोसा नहीं कर सकते. वजह यह है कि वह अर्थशास्त्री भी हैं, और राजनीतिज्ञ भी. दोनों का स्वभाव बंधे-बंधाए तकरे को तोड़ने का और आगे बढ़ने का होता है. अब एक और बड़ा सवाल कि जब जेटली और यशवंत सार्वजनिक रूप से सीधी लड़ाई में शामिल हो गए हैं, तो मोदी सरकार और बीजेपी क्या कर रही है? दरअसल, ये दोनों पार्टी बन चुके हैं. जाहिर है, ऐसे में सिन्हा विपक्ष की पोशाक में दिखने लगे हैं. लेकिन वरिष्ठ पार्टी नेता और पूर्व मंत्री को अकेला समझना भूल होगी क्योंकि अकेला वह होता है, जो मुद्दाविहीन हो. जेटली और यशवंत सिन्हा में मुद्दाविहीन कौन है, देश को बताने की जरूरत नहीं रह गई है.
बेहतर इकनोमी का जितना डंका पीट लिया जाए, संदेह बने रहेंगे. निश्चित रूप से मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था से जुड़े ढेरों फैसले लिए हैं. लेकिन जो नतीजे सामने आए हैं, वे डराने वाले हैं. सरकार को अपनी नीतियों पर भरोसा है, तो देश को भी भरोसा दिलाना होगा कि आने वाले दिनों में उसके कदमों से अच्छे नतीजे मिलेंगे. लेकिन इसके लिए सवालों को सुनना पड़ेगा. सवालों से बचना कोई उपाय नहीं है. तो यशवंत सिन्हा के सवाल का सम्मान कीजिए, तिरस्कार नहीं.
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