पुल हादसा भारी पड़ी अनदेखी
देश में जल्द ही बुलेट ट्रेन लाने की बात हो रही है, लेकिन लगातार होते रेल हादसे भारत में रेल व्यवस्था, उसके खस्ताहाल आधारभूत संरचना की बानगी दे रहे हैं.
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शुक्रवार को प्रात:10:30 मुंबई के एलिफिंस्टन स्टेशन के फुटओवर ब्रिज पर ज्यादा भीड़ की वजह से भगदड़ मच गई, जिसमें आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार 27 लोग मारे गए और 30 से ज्यादा लोग घायल हो गए हैं.
जिस फुटओवर ब्रिज पर यह हादसा हुआ, वह मुंबई रेल के दो महत्त्वपूर्ण वेस्टर्न रेलवे और सेंट्रल रेलवे को जोड़ने वाला 103 वर्ष पुराना एकलौता ब्रिज है. अगर सीसीटीवी फुटेज को देखें तो यहां हमेशा पीक ऑवर्स में भारी भीड़ होती है. रेलयात्रियों के अनुसार यहां पीक ऑवर्स में सदैव ऐसे ही भीड़ होती है, फिर भी भीड़ प्रबंधन के लिए सुरक्षाकर्मी नदारद रहते हैं. वहां के नियमित यात्री, स्थानीय मीडिया में लंबे समय से एक और बड़े फुटओवर ब्रिज की मांग की जाती रही है, परंतु इस पर भी रेलवे ने ध्यान नहीं दिया. ऐसे में तो यही लग रहा है कि रेल प्रशासन शायद किसी दुर्घटना का ही इंतजार कर रहा था. अब प्रश्न उठता है कि क्या इस रेल दुर्घटना को टाला जा सकता था? तो इसका जवाब है कि बिल्कुल टाला जा सकता था.
अगर प्राइम टाइम में यात्रियों की भीड़ को देखते हुए पुल का विस्तारीकरण का फैसला तभी ले लिया जाता तो यह हादसा नहीं होता. सवाल है कि तमाम मांगों के बावजूद पुल का चौड़ीकरण अथवा वहां नये पुल का निर्माण क्यों नहीं किया गया? शिवसेना सांसद अरविंद सावंत और राहुल शेवाले ने पूर्व रेलमंत्री सुरेश प्रभु को इस फुटओवर ब्रिज को चौड़ा करने के लिए कई बार पत्र भी लिखा था. उन पत्रों के जवाब में पूर्व रेलमंत्री ने फंड की कमी का रोना रोया.
पूर्व रेलमंत्री ने फंड कमी के लिए अंतरराष्ट्रीय मंदी तक का हवाला दिया था. ऐसे में उच्चस्तर रेल नीति-नियंताओं से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि अगर एक अति आवश्यक फुटओवर ब्रिज के लिए फंड नहीं है, तो रेलवे महत्त्वाकांक्षी बुलेट ट्रेन के लिए फंड कैसे प्राप्त कर लेता है? इससे साफ है कि उच्चस्तरीय रेल प्रशासन जमीनी सच्चाइयों से काफी दूर है. सरकार महत्त्वपूर्ण छोटे बजट के ओवरब्रिज में फंड कमी की बात करती है. क्या सरकार ने कभी अपने अनावश्यक खर्च में कटौती का प्रयास किया है? क्या सरकार ने अपने अनावश्यक सुरक्षा काफिले को घटाया है? अगर रेलवे इस मामले में थोड़ा भी गंभीर होता तो 27 लोगों को मौत के मुंह से बचाया जा सकता था. इस ब्रीज की मांग पिछले 8 वर्षो से लगातार जारी है.
नये फुटओवर ब्रिज की मांग के प्रत्युत्तर में रेलवे ने सिर्फ यही कदम उठाया कि हाल ही में इस स्टेशन का नाम बदलकर ‘प्रभादेवी’ स्टेशन कर दिया. रेलवे की लापरवाही से आए दिन दुर्घटनाएं और भगदड़ होती रहती हैं. इसकी वजह सभी को पता है. फिर भी हर वर्ष ये दुर्घटनाएं होती हैं. उनके बाद जांच होती है, बैठकों का दौर चलता है, मुआवजे की घोषणाएं होती है, लेकिन स्थायी समाधान नहीं होता है. रेल मंत्री पीयूष गोयल के अनुसार रेलवे के 200 अधिकारियों की तैनाती रेल मुख्यालय से फील्ड में की गई है, जिससे रेलवे को जमीनी स्तर पर मजबूती प्रदान की जा सके.
हर बार की तरह इस बार भी रेलवे मूल सत्य को स्वीकार करने से बचता दिख रहा है. कभी रेलवे भारी बारिश तो कभी अफवाह को हादसे की वजह मान रहा है, जबकि सच्चाई इसके उलट है. सबसे दुखद बात यह है कि रेलवे पूर्व में हुई इस प्रकार की भगदड़ों से कोई सीख नहीं ले रहा है. जांच समितियों की रिपोर्ट पर बाद में रेलवे द्वारा प्रभावी क्रियान्वयन के कमी से स्थिति में बदलाव नहीं आता है. रिपोर्ट बस धूल खाती रहती है. जब भी कोई रेल दुर्घटना या भगदड़ होती है, मुआवजे की घोषणा कर उसे भुला दिया जाता है. हमें इस प्रवृत्ति से बाहर आना होगा.
रेलवे-सुरक्षा के कई पहलू होते हैं, लेकिन प्रबंधन के स्तर पर सभी पहलू जुड़े रहते हैं. होता यह है कि रेलवे विभाग रेल सेवाओं में वृद्धि कर देता है, परंतु यात्री सुरक्षा के कई मूलभूत मामले उपेक्षित रह जाते हैं. इस मामले में ही अगर शिकायतों पर पहले ध्यान दिया जाता तो हादसे को टाला जा सकता था. राजनीतिज्ञों और रेल प्रबंधकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे इन छोटी किंतु बेहद महत्त्वपूर्ण मांगों के लिए संवेदनशील बने. अगर अल्पकालिक समाधान को देखा जाए तो अधिकारियों को भीड़ प्रबंधन से निपटने का काम भी संजीदगी से सीखने की जरूरत है. कुल मिलाकर रेलवे में यात्री सुरक्षा और सेवाओं के मध्य संतुलन की आवश्यकता है.
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