मीडिया : कुछ भी टिकता नहीं
क्या हम बता सकते हैं कि पिछले सप्ताह रविवार को सबसे बड़ी कौन-सी खबर ब्रेक हुई थी?
![]() कुछ भी टिकता नहीं |
क्या हम बता सकते हैं कि पिछले सप्ताह कौन-सी फिल्म रिलीज हुई थी, और कि वह चली कि फ्लॉप हुई? क्या हम बता सकते हैं कि पिछले पांच दिनों में कौन-सा नया मोबाइल ब्रांड लांच हुआ? क्या हम बता सकते हैं कि इस वक्त प्रद्युम्न की हत्या की जांच कहां तक पहुंची है?..कि हनीप्रीत के बारे में आखिरी खबर किस चैनल ने कब दी थी? क्या हम अपनी याद से एफएम चैनलों पर बजने वाले नए गानों की एक फेहरिश्त बना सकते हैं?
शायद नहीं. टीवी के आदी हम अपनी याददाश्त खोते जा रहे हैं. छवियों की कहानियों की चैनलों पर इतनी मारा मारी है कि कुछ भी टिकता नहीं. टीवी का संसार इस कदर संपन्नता बरसाता है कि लगता है हम अमेरिका के बाप हैं. आप एक चैनल पर कुछ खबर देखते हैं. लगभग उसी तरह की खबरें दूूसरे चैनलों पर आती हैं. जिस समय एक चैनल पर विज्ञापन आते हैं, उसी समय बाकी चैनलों पर विज्ञापन आते हैं. और विज्ञापनों में या तो ऑनलाइन शॉपिंग के विज्ञापन आते हैं, या लक्जरी कारों के आते हैं, या मकानों के आते हैं, या पेंट के आते हैं, जो धूल जमने नहीं देते, या फेयर एंड लवली टाइप क्रीमों के आते हैं. लेकिन कुछ भी टिकता नहीं. हम जल्दी-जल्दी भूलने लगे हैं. यह सूचना की, बाइटों की, छवियों की अति है. इनकी अति हमारी स्मृति को हिलाती रहती है, चंचलाती रहती है. तुरंता और ताबड़तोड़ ‘कंज्यूमरिज्म’ यानी ‘उपभोक्तावाद’ यही करता है. सब कुछ एक-सा चकाचक है. सब कुछ एक जैसे ही पैकेज में हैं. विशिष्टता बचे तो याद रहे. छवियों की भरमार ने, ब्रांडों की भरमार ने और उनके बेचने के शोर ने हमारी स्मरण शक्ति को क्षीण किया है. हमारी ‘रिकॉल’ करने की, ‘फोकस’ करने की क्षमता कम हो रही है.
एक जमाना था कि हर बड़ा ब्रांड अपनी ‘रिकॉल वेल्यू’ से अपना मार्केट बनाता था, वह स्वयं को ‘याद कराने की क्षमता’ से पहचाना जाता है. कोकाकोला, पेप्सी, कॉलगेट ऐसे ही ब्रांड हैं. पेय के नाम पर कोक याद आता है, टूथपेस्ट के नाम पर कॉलगेट याद आता है, साबुन के नाम पर अब भी लाइफबॉय याद आता है, जुकाम-खांसी के नाम पर विक्स याद आती है..यही उनके चिह्नों की रिकॉल वेल्यू है. लेकिन इन दिनों ब्रांड अपनी रिकॉल वेल्यू को स्थापित करने से पहले ही बदल देते हैं, और लगातार तरलता में रहते हैं. वे नहीं चाहते कि उनको कोई याद रखे.
यह नए प्रकार की मार्केटिंग है. यही बाजार में है और राजनीति में भी. मार्केट और राजनीति एकमेक हो चली हैं. जिस तरह हम ब्रांड याद नहीं रखते, हम राजनीति को याद नहीं रखते. हमारे विस्मरण पर ही मार्केट और राजनीति पलती हैं. चैनलों में मोबाइल पे मोबाइल, कारों पर कारों और बाल काला करने वाले शैंपुओं की भरमार है. सब लोग एक ही तरह के बन रहे हैं. दिखती है एक-सी चाल-ढाल, एक-से बाल, एक-से नाक-नक्श, एक-सा रंग. छवियां एक से आकषर्क और दुर्दम्य.
हमारा पहनावा तक एक जैसा होने लगा है. युवा की पहचान के चिह्न एक-से हैं : कसी हुई जीन्स, टी शर्ट, पीठ पर पिट्ठू बैग यानी बैक पैक. उसमें पानी की एक प्लास्टिक बोतल. यह एकदम नया ऑटोनॉमस युवा है. वह पैदल है, या नीचे मोटरसाइकिल है. तेज रफ्तार चलाता है. पीछे एक गर्लफ्रेंड और किसी काफी कैफे डे में काफी सुड़क. लड़कियों की छवियां भी एक-सी हुई जा रही हैं. किसी की लंबी चोटी नहीं दिखती. चुटीला भी नहीं. चुन्नी भी नहीं. टी शर्ट, जीन्स और बैक पैक यानी पिट्ठू बैग, उसमें बोतल. एकदम ऑटोनॉमस व्यक्तित्व. ये नए लड़के-लड़कियां हैं, जो बन रहे हैं, और कुछ पुरातनपंथी इनको बोलने से रोकना चाहते हैं. एक दूसरे से मिलने से रोकना चाहते हैं. मारते-पीटते हैं. मीडिया इनका पक्ष तुरंत लेता है क्योंकि ये मीडिया के बनाए युवा हैं, उसी के ग्राहक हैं, उसी के बाजार के कंज्यूमर हैं. वे अपने कंज्यूमर को नहीं पिटने दे सकता.
आप इसे अच्छा कहें या बुरा, मैं तो इसे अच्छा मानता हूं. माना कि याददाश्त क्षणभंगुर हो रही है. गूगल उनका गुरु है. वे कम किताबें पढ़ते हैं, और ज्यादा समय मोबाइल में रमते हैं, लेकिन यही है, जो बन रहा है, और यही भविष्य है, और यह अन्याय के खिलाफ प्रोटेस्ट करना जानता है. यह किसी नायक का चमचा नहीं है क्योंकि यह खुद को नायक से कम नहीं समझता.
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