हिन्दी : राष्ट्रीय एकता की संवाहक

Last Updated 13 Sep 2017 04:39:13 AM IST

देश को स्वतंत्र हुए 70 दशक हो गए हैं परंतु देश और इस देश की जनता का दुर्भाग्य है कि उनकी अभी तक कोई अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है, जिस पर वह गर्व कर सकें.


हिन्दी : राष्ट्रीय एकता की संवाहक

ऐसा तब है जबकि हिन्दी के सूत्र के सहारे कोई भी व्यक्ति देश के एक कोने से चलकर दूसरे कोने तक सहजता से आ-जा सकता है. देश में तकरीबन एक अरब लोग हिन्दी लिखते, बोलते और समझते हैं. दुनिया भर में लगभग 60 करोड़ लोगों का हिन्दी बोला जाना इस भाषा की वैश्विक लोकप्रियता का प्रमाण है.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे कि हिन्दी न जानने से गूंगा रहना ज्यादा बेहतर है. आजादी के बाद एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘जैसे अंग्रेज अपनी मातृभाषा अंग्रेजी में बातचीत करते हैं और उसे अपने दैनिक जीवन और कार्य संस्कृति में प्रयोग में लाते हैं, उसी तरह  आप सब देशवासी भी हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें.’ बापू ही नहीं अनेक संतों, सुधारकों, मनीषियों और राजनेताओं ने भी अपने विचारों का प्रसार-प्रचार हिन्दी के माध्यम से किया था.

उत्तर भारत में कबीर, पंजाब में नानक, सिंध में सचल, कश्मीर में लल्लन, बंगाल में बाउल, असम में शंकरदेव, सभी संतों ने इसी भाषा को अपनी भावधारा के प्रचार का साधन बनाया. स्वामी दयानंद सरस्वती, लोकमान्य तिलक, केशवचंद्र सेन, राजा राममोहन राय, नवीनचंद राय, जस्टिस शारदाचरण मित्र आदि अहिन्दी भाषी विद्वानों ने हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया. बावजूद इसके, हिन्दी तिरस्कृत है. पूरे देश की बात छोड़िए, राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालयों में सिर्फ अंग्रेजी भाषा में व्याख्यान और अंग्रेजी पुस्तकों का राज चल रहा है. तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी भाषा विवाद के स्वर मुखर हैं. भाषायी दादागिरी की धौंस झाड़ने वाले शायद भूल रहे हैं कि मुंबई के विकास की नींव में ‘हिन्दी’ का कितना योगदान है. यदि मुंबई में हिन्दी फिल्में न बनतीं तो क्या मुंबई इतनी लोकप्रिय होती?

आज हमारे देश के पांवों में अंग्रेजी भाषा की बेड़ी जकड़ी है. नौकरशाहों, पूंजीपतियों, पाश्चात्य उपभोक्तवादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने स्वार्थ के लिए अंग्रेजी का चोला ओढ़ रखा है. अभिजात्य वर्ग राष्ट्र की मुख्यधारा से कटा हुआ है क्योंकि वह अपने घर, गांव, गलियों, चौबारों और अपने परिवेश की भाषा नहीं जानता. लेकिन सच यह भी है कि देशवासी भारतीय कहलाने और हिन्दी बोलने में गर्व महसूस करते हैं. हिन्दी हमारी मातृभाषा के साथ-साथ पहली राजभाषा भी है.

भाषा सदैव उच्चारण से आती है, और आम भाषा में हिन्दी सवार्धिक प्रचलित है. गर्व की बात है कि देश में हर धर्म का व्यक्ति हिन्दी में बात करना जानता है. कुछ लोगों का मानना है कि जो भाषा रोजगार नहीं दे सकती, वह विलुप्त हो जाती है. यह सही है तो अब तक तो संस्कृत और लैटिन का लोप हो गया होता. मगर ये भाषाएं अब भी प्राथमिक कक्षाओं से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. स्तर तक पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं. जरूरत इस बात की है कि हिन्दी पढ़ाने हेतु उच्चस्तरीय कक्षाओं के लिए अच्छे पाठ्यक्रम विकसित किए जाएं. सृजनात्मक/रचनात्मक अध्यापन प्रणालियां विकसित करना, पठन-पाठन की नई पद्धतियां और पढ़ाने के नए वैज्ञानिक तरीके खोजना हिन्दी के विकास के लिए जरूरी है. 

गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 120, 210 और 343 से अनुच्छेद 351 तक के अंतर्गत हिन्दी भाषा को लेकर संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं. राजभाषा अधिनियम जारी कर हिन्दी के कार्यान्वयन की मॉनिटरिंग के लिए केंद्रीय हिन्दी समिति, हिन्दी सलाहकार समिति, संसदीय राजभाषा समिति, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, राजभाषा कार्यान्वयन समिति जैसी समितियां बनाई गई ताकि हिन्दी भाषा का उत्थान हो सके. पूरा देश भाषा रूपी एकता के सूत्र में बंध सके. हालांकि राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में हिन्दी को वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार है. बावजूद इसके, देश में हिन्दी की जड़ें खासी मजबूत हैं.

हिन्दी वह वटवृक्ष है, जिसे हम खाद-पानी न भी डालें, खर-पतवार से घिरा रहने दें, तो भी गिर नहीं सकता. उसकी जड़ें जमी रहेंगी. समझना होगा कि हिन्दी कोई निर्धनों की भाषा नहीं है. संस्कृत से बनी हिन्दी की दो हजार धातुओं से करोड़ों शब्द बने हैं, जो इसकी समृद्धता के प्रतीक हैं. आज सार्वजनिक स्थानों पर, कार्यालयों में, शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी के साथ हिन्दी को समुचित स्थान दिलवाने के लिए देश को उसी तरह ‘हिन्दी सेनानियों’ की जरूरत है, जिस तरह गुलाम देश दासता के चंगुल से मुक्त कराने के लिए  स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जरूरत थी.

पूनम नेगी
लेखक


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