गृहमंत्री-दौरा : सबके अपने-अपने डर हैं
पहले मनमोहन सिंह, फिर राजनाथ सिंह. लोग पूछ रहे हैं कि नया क्या हो रहा है जम्मू-कश्मीर में. नये तरह के डर पैदा हो रहे हैं.
गृहमंत्री-दौरा : सबके अपने-अपने डर हैं |
शीर्ष पर बैठे कुछ लोगों के मन में और यह डर उन्हें विचित्र और आपत्तिजनक बयान देने और हर किसी को धमकी देने को मजबूर कर रहे हैं. सुरक्षा एजेंसियां चुन-चुन कर नामी आतंकवादियों का सफाया कर रही हैं, जिनसे नये रंगरूटों की किल्लत पड़ने लगी है. इससे यह डर तो पैदा होने लगा है कि कहीं आतंकवादी गुटों में नई भर्ती ही बंद न हो जाए, जिस पर अलगाववादी व्यवसाय का दारोमदार है.
कुछ अलगाववादी नेताओं और उन के रिश्तेदारों के चारों ओर राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी का घेरा कसता जा रहा है और डर है कि कहीं इससे ऐसे राज न खुल जाएं, जिनकी सफाई कश्मीर की जनता को देना मुश्किल हो जाए. लेकिन जिस डर के कारण अब खलबली मच रही है, वह सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन एक याचिका है, जिसमें 1954 में संविधान में शामिल एक अनुच्छेद 35 ए को गैरकानूनी घोषित करने की अपील की गई है.
जम्मू-कश्मीर के कुछ नेताओं को डर है कहीं इस बार सर्वोच्च न्यायालय इस याचिका पर गंभीरता से विचार न करे और अंत में रद्द ही न कर दे. इस अनुच्छेद पर देश के कई नगरों और कानून व राजनीति के अध्ययन केद्रों में बहस तो जारी है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में इस पर जनता नहीं, नेता ही बोल रहे हैं. अपने डर को वे दूसरों को डरा कर भगाना चाहते हैं. एक ओर वो केंद्र सरकार को डरा रहे हैं कि अगर इस अनुच्छेद के साथ कोई छेड़छाड़ की तो कानून-व्यवस्था की ऐसी हालत पैदा कर देंगे कि संभाल नहीं पाओगे.
दूसरी ओर, से कश्मीरी जनता को डरा रहे हैं कि अगर इस अनुच्छेद को हटा दिया गया तो तुम्हारी जमीनें और तुम्हारी सम्पत्ति के साथ ही तुम्हारी नौकरियां भी जाएंगी. स्वाभाविक है कि आम लोग, जिनके लिए अपनी थोड़ी-सी जमीन जीवनयापन का साधन है, या वे युवक जो बड़ी मुश्किल से रित देकर मामूली सी नौकरी पर रोजी-रोटी चलाते हैं, अपने आर्थिक साधनों के जाने के आतंक को महसूस ही करेंगे ही.
संविधान के एक अनुच्छेद पर अदालत में विचार करने से आखिर इतनी घबराहट क्यों? माजरा क्या है? 1954 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सुझाव पर राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया था. राष्ट्रपति का यह आदेश था तो केवल अनुच्छेद 370 को लागू करने के बारे में, लेकिन इसे लागू करने के लिए भारतीय संविधान के कई अनुच्छेदों को भी बदलने की आवश्यकता थी, और कुछ अनुच्छेदों में कुछ नये अंश भी जोड़ने की आवश्यकता थी.
ऐसा किसी राष्ट्रपति के आदेश से नहीं हो सकता था. संसद में बाकायदा विधेयक लाये बिना ऐसा संभव नहीं था. इस झंझट से बचने के लिए भारतीय संवैधानिक इतिहास में पहली बार एक राष्ट्रपति के आदेश को चुपचाप संविधान में शामिल कर के नया अनुच्छेद यानी 35 ए जोड़ दिया गया. वह भी संसद के किसी भी सदन में पेश किए बिना और संसद द्वारा पारित किए बिना. संविधान में संशोधन यानी उसके किसी अनुच्छेद को हटाने-घटाने या जोड़ने की किसी कार्रवाई का अधिकार केवल भारत की संसद को ही है. अनुच्छेद 35ए को संविधान में जोड़ने का यह काम सामान्य ज्ञान में ही असंवैधानिक लगता है. इसीलिए इसे अनुच्छेद 35 के ठीक पश्चात, जहां उसे होना चाहिए, नहीं रख कर कहीं परमिट में जोड़ दिया गया था, जहां किसी नजर न पड़े.
कमाल की बात है कि सचमुच लगभग साठ साल तक अधिकतर शिक्षित लोग, वकील और जज भी नहीं जानते थे कि ऐसा कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान में है. लेकिन पिछले दो वर्ष में न केवल कानून से जुड़े लोगों को इसके बारे में जानकारी हो गई है बल्कि अचानक सारे देश के शिक्षा केंद्रों और राजनैतिक गलियारों, मंचों और सभाओं में इस पर बहस छिड़ गई. 35ए का शोर मच गया है, जैसे किसी कोने में छिपा चोर अचानक पकड़ा गया हो. लेकिन इस मामले में दिलचस्प बात यह है कि 35ए के बारे में कुछ नागरिकों ने सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर की है.
अदालत की कार्रवाई पर सरकार का कोई दखल नहीं. यह मामला केंद्र सरकार के पाले में है ही नहीं. इसलिए उसे यह कहने की सुविधा है कि हम तो अदालत नहीं गए. हम यहां की जनता की भावनाओं के विरुद्ध कुछ भी नहीं करेंगे. ऐसी बातों से राजनाथ सिंह ने कश्मीरी नेताओं को शांत करने का प्रयास किया. लेकिन अगर न्यायालय ने अनुच्छेद को गैर कानूनी घोषित किया तो सरकार की यह सुविधा जाती रहेगी. इसलिए आंखें मींच कर खतरे को भगाने की यह नीति बहुत दूरगामी नीति नहीं हो सकती है.
कानून-व्यवस्था गृहमंत्री का विशेष कार्यक्षेत्र होता है. जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को फिर से उग्र किए जाने का खतरा है, क्योंकि अलगाववादियों को लगता है कि अगर केंद्र सरकार को अपनी योजनाओं पर अधिक समय तक चलने दिया जाए तो इससे आतंकवादी ढांचा चरमाराने लग जाएगा और आतंकी संगठनों की पकड़ कमजोर पड़ जाएगी. कश्मीर घाटी में विदेशी गुटों को वह सफलता नहीं मिली, जो कश्मीरी बोलने वाले देशज हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकियों को मिलती रही थी.
इसलिए 1914 आते-आते इस समरनीति में परिवर्तन करना पड़ा. केंद्र सरकार ने इस बार सुरक्षा संगठनों को कानून के दायरे में हर तरह की छूट दे दी थी. इसलिए जो कार्रवाई आतंकवादी गुटों के खिलाफ शुरू हुई, उससे आतंकी गुटों में खलबली मच गई. कश्मीरी सुरक्षाकर्मियों का मनोबल उठाने और शहीदों के परिवारों को हर तरह की सहायता देने का वायदा करने का उद्देश्य कश्मीर में धीरे-धीरे आंतरिक सुरक्षा कश्मीरियों के हाथों में देने की शुरुआत है. इसलिए राजनाथ के लिए स्वयं इन सब मामलों को समझना और जरूरी बदलाव का मन बनाने के लिए कश्मीर आकर अधिकारियों से बतचीत करना जरूरी था. जहां तक मनमोहन सिंह के दौरे का सवाल है तो वह कांग्रेस की पुरानी नीति की संभावनाएं तलाशने की कोशिश है, जिसका मूल मंत्र यथास्थितिवाद है.
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