चीन की छटपटाहट स्वाभाविक

Last Updated 11 Sep 2017 05:12:59 AM IST

चीन की ओर से इस समय ऐसी बातें की जा रहीं हैं, जिनसे पहली नजर में भारत में निर्मिंत यह धारणा कमजोर होती है कि भारत ने चीन के संदर्भ में विदेश नीति में बहुत बड़ी सफतलाएं प्राप्त की हैं.


चीन की छटपटाहट स्वाभाविक.

वो चाहे डोकलाम तनाव का तात्कालिक शांतिपूर्वक समाधान हो या फिर ब्रिक्स में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों के नामों का उल्लेख और हर प्रकार के आतंकवाद का विरोध. श्यामन में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन खत्म होने के चौथे एवं पांचवें दिन वहां से ऐसे विचार आए हैं, जो भारत की इस सोच को गलत साबित करने वाले हैं. चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने लिखा है कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों की पहली बार ब्रिक्स घोषणापत्र में निंदा को भारतीय मीडिया भारतीय कूटनीति की जीत के तौर पर बता रहा है. ऐसा निष्कर्ष हास्यास्पद है और इसमें शोध की कमी है और यह भारत के आत्मप्रचार को दिखाता है.

संपादकीय में लिखा गया है कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा को संयुक्त राष्ट्र और पाकिस्तान ने आतंकवादी समूहों की सूची में डाला हुआ है. चीन इन संगठनों को श्यामन घोषणापत्र में शामिल करने के लिए सहमत हुआ और यह पाकिस्तान के आधिकारिक रुख के अनुकूल है. इसके एक दिन पूर्व पाकिस्तान से संबंध को लेकर चीन के विदेश मंत्री वान्ग यी ने कहा कि पाक आतंकवाद से पूरी ताकत से लड़ रहा है और कुछ देशों को उसे इसके लिए पूरा श्रेय देना चाहिए. पाकिस्तान हमारा एक अच्छा भाई और जिगरी दोस्त है. कोई भी पाकिस्तान को चीन से बेहतर नहीं जानता-समझता है.

हम आसानी से समझ सकते हैं कि यहां कुछ देशों से वान्ग यी का मतलब भारत और अमेरिका से होगा. ब्रिक्स घोषणा पत्र के बाद उस पर हुए दबाव का ही असर था कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ को यह स्वीकार करना पड़ा कि अगर जैश और लश्कर जैसे आतंकवादी संगठनों पर लगाम नहीं लगाई गई तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बार-बार शर्मिंदगी का सामना करता रहेगा. हालांकि भारत सरकार की ओर से ऐसा कुछ नहीं कहा गया कि ब्रिक्स के घोषणा पत्र में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों का नाम डाला जाना भारत की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है.

इसी तरह सरकार ने डोकलाम विवाद के तात्कालिक अंत पर भी ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. किंतु देश में और दुनिया में भी ऐसा ही संदेश गया और मीडिया ने इसे इसी तरह पेश किया. यह बिल्कुल स्वाभाविक था. अब चीन को इससे परेशानी है या उसे पाकिस्तान को यह विास दिलाना पड़ रहा है वह उसके साथ खड़ा है या ब्रिक्स प्रस्ताव उसके खिलाफ नहीं है तो इसमें हम कुछ नहीं कर सकते. किंतु चीन की यह बात उसके चरित्र को देखते हुए स्वाभाविक होते हुए भी स्वीकार करना कठिन है.

आखिर यह चीन ही था, जिसने ब्रिक्स सम्मेलन से ठीक पहले कहा था कि भारत को पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों के मसले को इस मंच पर नहीं उठाना चाहिए.
चीन ने कहा था कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर भारत की चिंताओं पर ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में चर्चा नहीं होगी. किंतु हुआ क्या? न केवल शिखर सम्मेलन में आतंकवाद पर चर्चा हुई बल्कि घोषणापत्र में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों का नाम लेकर निंदा की गई, जिस पर चीन के भी हस्ताक्षर हैं. जरा ब्रिक्स घोषणा पत्र के इस भाग के कुछ अंश देखिए. उसमें कहा गया है कि हम सभी तरह के आतंकवाद की निंदा करते हैं, चाहे वो कहीं भी घटित हुए हों और उसे किसी ने अंजाम दिया हो.



ब्रिक्स देश संयुक्त राष्ट्र महासभा की तरफ से कॉम्प्रिहेंसिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेरेरिज्म (अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर समग्र समझौते) को जल्द ही अंतिम रूप दिए जाने और इसे स्वीकार किए जाने की भी मांग करते हैं. ध्यान रखिए यह भारत की पहल है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अनेक मंचों से इसे स्वीकार किए जाने की मांग कर चुके हैं. ठीक है कि इसमें चीन के शिंकिंयांग प्रांत में आतंकवाद के लिए जिम्मेवार दो संगठनों के भी नाम हैं किंतु इसमें भारत को कोई समस्या नहीं. भारत कहीं भी किसी प्रकार के आतंकवाद का विरोध करता है और उसमें जो जहां जैसा सहयोग चाहेगा वैसा करने को तैयार है. यह चीन ही था जिसने गोवा में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों का नाम शामिल नहीं होने दिया था. यह चीन ही है जो जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख अजहर मसूद को आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव में अड़ंगा लगाता रहा है. इस नाते इस तरह का प्रस्ताव ब्रिक्स सम्मेलन में चीन की भूमि पर और उसके नेता की उपस्थिति में पारित होना भारत की हर दृष्टि से विदेश नीति में एक बड़ी सफलता है.

यही बात डोकलाम विवाद के साथ भी लागू होता है. जाहिर है, चीन जो बयान दे रहा है वह उसकी मजबूरी है और हमारे लिए भविष्य का संकेत भी. ग्लोबल टाइम्स अखबार ने लिखा है कि भारत के दबाव के बावजूद चीन पाकिस्तान के साथ रणनीतिक सहयोग को आगे बढ़ाता रहेगा. प्रश्न है कि जब भारत सरकार की ओर से कोई बयान दिया ही नहीं गया तो फिर चीन छटपटा क्यों रहा है? ग्लोबल टाइम्स के एक संपादकीय का शीषर्क ही है भारत को पुरानी मानसिकता से छुटकारा पाना चाहिए. वास्तव में ब्रिक्स प्रस्ताव के बाद पाकिस्तान इतना परेशान हुआ कि उसके विदेश मंत्री आनन-फानन में बीजिंग पहुंच गए. चीन के विदेश मंत्री के साथ उनकी साझा पत्रकार वार्ता हुई. उसमें चीन को हर हाल में पाकिस्तान को यह विास दिलाना था कि वह किसी सूरत में उसके खिलाफ नहीं जाने वाला है. भारत को यहां तक कह दिया कि वह पाकिस्तान को हल्के में न ले. इस प्रकार के बयान का क्या अर्थ है? 

चीन पहली बार इस तरह उलझन की स्थिति में आया है. उसके सामने पाकिस्तान में अपने दूरगामी राष्ट्रीय हित की रक्षा करने का प्रश्न है तो ब्रिक्स घोषणा पत्र के साथ जाने की समस्या भी. ब्रिक्स घोषणा पत्र के अनुसार अब उसके लिए अजहर मसूद के पक्ष में खड़ा होने के लिए नए तर्क गढ़ने होंगे. भारत की रणनीति बहुत साफ है. अपने काम से मतलब रखो और कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त न करो. डोकलाम पर भी भारत ने यही किया और ब्रिक्स पर भी यही भंगिमा है. हमें तत्काल जितना चाहिए था मिल गया, भविष्य का बाद में देखेंगे.

 

 

अवधेश कुमार


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