मणिपुर : कानून की नजर में सब बराबर
गैरन्यायिक हत्या मामलों में एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने खुलकर पीड़ितों का पक्ष लिया है. मणिपुर फर्जी मुठभेड़ मामले में सुनवाई करते हुए अदालत ने हाल ही में इन मामलों में से 95 फर्जी मुठभेड़ों की सीबीआई जांच के आदेश दिए हैं.
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न्यायमूर्ति एमबी लोकुर और यूयू ललित की पीठ ने सीबीआई से कहा, ‘वह इन न्याय इतर हत्याओं की जांच के लिए दो हफ्ते के अंदर एसआईटी गठित करे. एसआईटी यह जांच 31 दिसम्बर तक पूरी करे और 28 जनवरी तक अपनी अनुपालन रिपोर्ट अदालत को सौंपे.’
पीठ ने अपने इस साहसी आदेश में फर्जी मुठभेड़ों के इस बहुचर्चित मामले में कोई वाजिब कार्रवाई नहीं करने को लेकर मणिपुर सरकार की भी खिंचाई की. उसको फटकार लगाते हुए कहा, ‘क्या उसे इस तरह के मामलों में कुछ करना नहीं चाहिए था?’ जाहिर है कि अदालत ने जो भी आदेश दिया है, वह मानवाधिकारों के हक में है. अदालत ने अपने आदेश में एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि सरकार और सेना, सैन्य कार्रवाई का बहाना लेकर नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती. लोकतंत्र में उनकी भी जनता के प्रति जवाबदेही बनती है. वे कोई भी बहाना बनाकर या झूठी दलीलों का सहारा लेकर अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते. इस आदेश से जहां फर्जी मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजनों के दिल में इंसाफ की एक किरण जगी है, तो वहीं यह फैसला सेना और सरकार दोनों के लिए एक बड़ा झटका है.
बीते 20 अप्रैल को अदालत में अपना पक्ष रखते हुए सेना ने कहा था, ‘जम्मू-कमीर, मणिपुर जैसे उग्रवाद प्रभावित राज्यों में उग्रवाद निरोधी अभियान चलाने के मामलों में उसे प्राथमिकता के अधीन नहीं लाया जा सकता है.’ यही नहीं सेना ने अपने आप को बेदाग बतलाते हुए बचाव में यह दलील भी दी थी, ‘इन क्षेत्रों में होने वाली न्यायिक जांच में स्थानीय पक्षपात होता है, जिसने उसकी छवि खराब कर दी है.’ केंद्र सरकार ने सेना के रवैये का समर्थन करते हुए अदालत में दाखिल हलफनामे में कहा था, ‘सभी सैन्य अभियानों में सेना पर अविास नहीं किया जा सकता है. सभी न्यायिक जांच उसके खिलाफ नहीं हो सकते हैं. मणिपुर में न्यायेतर हत्याओं के कथित मामले नरसंहार के नहीं हैं, ये सैन्य अभियान से जुड़े हैं. इस मामले में और जांच की जरूरत नहीं है.’
लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में सेना और सरकार दोनों की कोई दलील नहीं चली. शीर्ष अदालत एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही है, जिसमें याचिकाकर्ताओं ने मणिपुर में साल 2000 से 2012 के बीच सुरक्षा बलों और मणिपुर पुलिस द्वारा 1,528 न्यायेतर हत्याओं के मामले की जांच और मुआवजे की मांग की थी.
यह कोई पहली मर्तबा नहीं है कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार और सेना को अपनी जिम्मेदारियों की तरफ ध्यान दिलाया हो, बल्कि इससे पहले भी जब केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत में एक उपचारात्मक याचिका दायर कर उससे मणिपुर के गैरन्यायिक हत्या मामले में अपना फैसला वापस लेने का अनुरोध किया तो अदालत ने इसे एकदम खारिज कर दिया. बंद कमरे में हुई अदालती कार्यवाही में पीठ ने पहले उपचारात्मक याचिका और उससे संबंधित दस्तावेजों पर अच्छी तरह से गौर किया और फिर उसके बाद इस मामले में दिए गए अपने पिछले आदेश को दोहराते हुए कहा, ‘सेना का इस्तेमाल सिविल प्रशासन की मदद के लिए किया जा सकता है, लेकिन यह अनिश्चितकाल तक नहीं चल सकता. अगर हमारे सैन्य बलों को सिर्फ संदेह या आरोप के आधार पर अपने देश के नागरिकों को मारने के लिए तैनात किया गया है, और भर्ती किया गया है, तो न सिर्फ कानून का राज बल्कि लोकतंत्र खतरे में है.’
सवाल है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे कानूनी प्रावधान क्यों रहने चाहिए जो सुरक्षाकर्मियों को यह आश्वासन दें कि वे बेगुनाह लोगों की हत्या करें या उनका उत्पीड़न, लेकिन फिर भी वे सजा पाने से बचे रहेंगे. देश की सुरक्षा के लिए सेना हर जरूरी कार्रवाई करे, इस बात से भला कौन एतराज करेगा. लेकिन कार्रवाई करते वक्त वह स्थानीय नागरिकों के प्रति भी संवेदनशील हो. तिस पर फर्जी मुठभेड़ों में बेगुनाह लोगों को मार देना, सबसे बड़ा अपराध है.
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