राष्ट्रपति : तय जीत के मायने
वोट बैंक की राजनीति का विरोध करके सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रांत के दलित नेता रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर वोटबैंक का ट्रंप कार्ड खेल दिया है.
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इस कदम से भाजपा कांग्रेस की तरह दलित समाज में अपना आधार मजबूत करेगी और सवर्ण, दलित और मध्य जातियों का मुकम्मल गठजोड़ बनाकर अल्पसंख्यकों से रहित कांग्रेस जैसा ही जिताऊ और टिकाऊ समीकरण बना ले जाएगी. लेकिन विडम्बना यह है कि जिस समय राष्ट्रपति चुनाव की मतगणना में राम नाथ कोविंद एक यूपीए की दलित उम्मीदवार मीरा कुमार को पराजित कर रहे थे उसी समय देश की एकमात्र स्वायत्त मगर कमजोर और विवादित हो चुकी दलित नेता मायावती राज्य सभा से दोबारा इस्तीफा दे रही थीं. संयोग से इस बार बिना शर्त के दिए गए इस इस्तीफे को उप राष्ट्रपति यानी राज्य सभा के चेयरमैन ने मंजूर कर लिया.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर दलित आंदोलन हताश और निराश है. संसदीय राजनीति में वह हाशिए पर ठेल दिया गया है और अब उसके पास सवर्णो के वर्चस्व वाली और उनके हितों को केंद्र में रखकर काम करने वाली पार्टयिों के सामने समर्पण करने के अलावा कोई चारा नहीं है. उसके पास दूसरा रास्ता संघर्ष का है और उसके लिए कुछ संगठन उग्र तो कुछ संसदीय मार्ग पर नये तरीके से बढ़ने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश में सिर्फ 19 सीटें पाने वाली और लोक सभा में एक भी सीट न जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी के सामने मनुवाद का सर्वाधिक संगठित रूप उपस्थित है. हालांकि, यह देश में पहली बार हुआ है कि राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले दोनों उम्मीदवार दलित ही रहे. मीरा कुमार को उनके पति के सवर्ण होने कारण एनडीए के प्रचारक दलित होने से खारिज करते रहे, लेकिन कानूनी स्थिति यही है कि किसी से भी विवाह करने के बावजूद उन्हें दलित ही माना जाएगा.
भाजपा ने दलित समाज को अपने भीतर शामिल करने के लिए आज से दांव नहीं खेला है. वह दांव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के नेता उस समय भी खेल रहे थे, जब बाबा साहेब अम्बेडकर कांग्रेस और गांधी से सत्ता संघर्ष में उलझे थे और 1980 में उस समय भी खेला था जब मोरारजी देसाई और चरण सिंह ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था. तब जनता पार्टी के जनसंघ वाले घटक ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया था.
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मायावती को पहली बार मुख्यमंत्री भाजपा ने ही अपने समर्थन से बनवाया था. उसके बाद भी वे दो बार भाजपा से समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं. इसलिए दलित राजनीति को अपने पाले में खींचने की संघ परिवार की कोशिश नई नहीं है. लेकिन उसे सफलता तब मिल रही है, जब दलित कांग्रेस के पाले से छिटक कर बसपा के रूप में अपना स्वतंत्र आंदोलन खड़ा करने के बाद आज फिर पराजित हो चुका है. भाजपा ने कोविंद को राष्ट्रपति बनाने के लिए सबसे उपयुक्त समय चुना है. उसे इसका लाभ मिलेगा और संभव है कि दलितों और गैर दलितों के रिश्तों में होने वाली खींचतान कुछ कम हो. एक समय में इस उम्मीदवारी पर मायावती को भी कहना पड़ा कि चाहे जो जीते पर वह होगा तो दलित ही. निश्चित तौर पर यह उपलब्धि कांशीराम द्वारा खड़ी की गई दलित राजनीति की है और अपने को उस विरासत की एकमात्र दावेदार बताने वाली मायावती की भी.
इसी राजनीति के दबाव में विनाथ प्रताप सिंह मंडल आयोग की रपट लागू करने को मजबूर हुए और इसी के दबाव के चलते 1997 में दलित विद्वान केआर नारायण को राष्ट्रपति बनाया गया. भाजपा और संघ परिवार सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति को बखूबी खेल रहे हैं और कोविंद का राष्ट्रपति बनना उसी का परिणाम है. इस पहल के चलते विपक्ष विखंडित हुआ है और बिहार में महागठबंधन के प्रमुख घटक के नेता नीतीश कुमार एनडीए की ओर आए हैं तो उत्तर प्रदेश में शिवपाल सिंह यादव और उनके सहयोगी भी कोविंद के पक्ष में मतदान करने खड़े हुए हैं. बीजू जनता दल ने भी एनडीए का साथ दिया तो त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस टूट गई.
विपक्ष को तोड़कर और दलित वोट बैंक को अपनी ओर खींचकर कोविंद को राष्ट्रपति बनाने में भाजपा की कामयाबी नये राजनीतिक समीकरणों की प्राप्ति है. प्रतीकात्मक ही सही, लेकिन देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर गरीब और दलित समाज से आए एक व्यक्ति का बैठना देश और दुनिया को सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान की संभावना के बारे में बड़ा संदेश तो देता है. लेकिन महज इस प्रतीक से उन घावों को नहीं भरा जा सकता जो पिछले तीन सालों में दलित समाज को लगे हैं. आज भी देश के भूमिहीनों में 57.3 प्रतिशत दलित हैं और जेलों में बंद कैदियों में 21.6 प्रतिशत संख्या दलितों की है.
हाल के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा में सवर्ण प्रतिनिधियों की संख्या 44 प्रतिशत हो गई है. जाहिर है फिर हाशिए पर ठेला जा रहा सामान्य दलित समाज कहीं आंबेडकर की मूर्ति स्थापित करने और जुलूस निकालने के लिए विवाद कर रहा है तो कहीं रैदास की प्रतिमा लगाने के लिए.
इस विवाद में हारने के बाद वह उग्र आंदोलन का सहारा भी ले रहा है. सहारनपुर की भीम सेना इसका उदाहरण है. विडम्बना है कि गोरक्षा के नाम पर उग्र आंदोलन करने वाले मुक्त घूमते हैं और भीमसेना का अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद जेल में ठूंस दिया जाता है. सवाल यह है कि एक गरीब परिवार से आने वाले कोविंद जिन्होंने पहले वकालत और बाद में दलित मुद्दों को उठाने वाले एक सांसद के तौर पर अपनी पहचान बनाई, क्या भारतीय समाज के इस असंतुलन को बदल सकेंगे?
क्या उनके बनने से देश में कभी धीमी तो कभी तेज होकर चलने वाली दलित जनवादी क्रांति आगे बढ़ेगी या ठहर जाएगी? निश्चित तौर पर जब वे देश के सर्वोच्च पद पर बैठेंगे तो दलित मध्यवर्ग के मन में एक उत्साह और उम्मीद जगेगी और वह इस व्यवस्था के भीतर अपने लिए जगह पाने के सपने देखेगा. लेकिन यह सपना क्या सामान्य दलितों से जुड़कर देखा जाएगा या उनसे कटकर? यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि कोविंद एपीजे अब्दुल कलाम की तरह फ्रेम से बाहर निकल कर अपनी बात कह पाते हैं या आलीशान राष्ट्रपति भवन और संवैधानिक मर्यादाओं में कैद होकर रह जाते हैं.
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