गंगा : प्रदूषण से मुक्ति कब

Last Updated 21 Jul 2017 06:17:09 AM IST

आज गंगा की प्रदूषण मुक्ति का सवाल उलझ कर रह गया है. 2014 में राजग सरकार के अस्तित्व में आने के बाद से ही गंगा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्राथमिकताओं में सर्वोपरि है.


गंगा : प्रदूषण से मुक्ति कब

‘नमामि गंगे मिशन’ उसी की परिणति है. राजग सरकार अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे कर चुकी है, लेकिन हालात इसके गवाह हैं कि गंगा बीते तीन सालों में सरकार की लाख कोशिशों के बाद भी प्रदूषण से मुक्त नहीं हो पाई है. वह बात दीगर है कि गंगा की सफाई को लेकर सरकार के मंत्रियों ने बयान देने के मामले में कीर्तिमान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है.
इस मामले में केंद्रीय जल संसाधन, गंगा संरक्षण एवं नदी विकास मंत्री उमा भारती शीर्ष पर हैं. जबकि हकीकत यह है कि गंगा की सफाई को लेकर सरकार की हर कोशिश बेकार रही है. रही बात एनजीटी की, गंगा एवं देश की अन्य नदियों की बदहाली, उनके अस्तित्व और उनके उज्ज्वल भविष्य को लेकर जितनी चिंता और दुख एनजीटी ने व्यक्त किया है,

सरकारों को चेतावनियां दी हैं, निर्देश दिए हैं, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है. लेकिन दुख की बात यह है कि बीते दो सालों में एनजीटी के लाख प्रयासों और सरकार द्वारा 7000 करोड़ रुपये की राशि गंगा सफाई की इस परियोजना पर खर्च किए जाने के बावजूद गंगा सफाई के मामले में लेशमात्र भी सुधार नहीं हुआ है. सरकार दावे भले कुछ भी करे, असलियत में गंगा अपने मायके उत्तराखंड में ही मैली है. धर्मनगरी हरिद्वार में शहर का तकरीब आधे से ज्यादा सीवरेज बिना शोधन सीधे गंगा में गिर रहा है. घाटों पर जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई देते हैं. हर की पौड़ी सहित तमाम घाटों से गंदगी सीधे गंगा में गिराई जाती है.

उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों से गंगा में तकरीब 760 औद्योगिक इकाइयों का रसायनयुक्त कचरा सीधे प्रवाहित किया जा रहा है. अकेले उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे की तकरीब 6000 हेक्टेयर की जमीन पर अतिक्रमण कर अवैध निर्माण किया गया है. नतीजन वहां बने घरों का कचरा और मलयुक्त गंदगी गंगा में बहायी जा रही है. एनजीटी ने अपने अहम् और कड़े फैसले में कहा है कि गंगा में यदि किसी भी तरह का कचरा फेंका जाता है तो, कचरा फेंकने वाले पर 50 हजार रुपये का पर्यावरण हर्जाना कहें या जुर्माना लगाया जाएगा. यही नहीं, उसने हरिद्वार और उन्नाव के बीच के तकरीब 500 किलोमीटर के दायरे में गंगा नदी के किनारे के 100 मीटर की दूरी तक के इलाके को ‘गैर निर्माण जोन’ घोषित किया है.

उसके अनुसार गंगा तट के 100 मीटर के दायरे में कोई निर्माण या विकास कार्य नहीं किया जा सकेगा. ऐसा करने वाले के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली एनजीटी की पीठ ने पर्यावरणविद् एम सी मेहता द्वारा 1985 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका पर जो 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी को सौंपी, उस पर दिए अपने 543 पृष्ठ के ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि उसके फैसले के पालन की निगरानी करने के लिए इस बाबत रिपोर्ट पेश करने के लिए पर्यवेक्षक समिति का गठन किया है.

यह समिति नियमित अंतराल पर रिपोर्ट पेश करेगी. साथ ही कचरा निस्तारण संयत्र के निर्माण और दो वर्ष के भीतर नालियों की सफाई सहित संबंधित विभागों से विभिन्न परियोजनाओं को पूरा करने के निर्देश दिए. गौरतलब है कि एनजीटी ने इससे पूर्व गंगा बेसिन में कचरा फेंक रहे बिजली संयत्रों से पूछा था कि उन्होंने नदी को प्रदूषित होने से रोकने के लिए क्या उपाय किए हैं. साथ ही एनजीटी की जस्टिस स्वतंत्र कुमार की पीठ ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन और बिजली मंत्रालय से कहा था कि वे इस बाबत बैठक करें और अपनी टिप्पणियों के साथ हलफनामा दाखिल करें. एनजीटी के इस फैसले से कोई अभूतपूर्व बदलाव आएगा, इसमें संदेह है.

कारण एनजीटी के अनुसार गंगा तट के 100 मीटर की दूरी तक कोई विकास कार्य या निर्माण कार्य नहीं हो सकेगा. लेकिन उसके बाद न तो किसी निर्माण या विकास कार्य पर पाबंदी है, उस दशा में वहां किसी भी तरह का निर्माण किया जा सकेगा, उस पर कोई रोक नहीं होगी और उस पर जुर्माना भी नहीं किया जा सकेगा. लेकिन वहां की गंदगी, कचरा कहां जाएगा. वहां औद्योगिक प्रतिष्ठान की स्थापना के बारे में भी कोई रोक नहीं है. इसका इस फैसले में कोई जिक्र नहीं है. स्वाभाविक है प्रदूषण में बढ़ोतरी होगी. यदि यही हाल रहा तो इसमें दो राय नहीं कि देश के 11 राज्यों की तकरीब 40 फीसद आबादी की जीवनदायिनी गंगा दिन-ब-दिन मरती चली जाएगी.

ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक


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