गोपाल गांधी : कठघरे में तो खड़े हैं ही
तीखे राजनीतिक विभाजन के दौर में राष्ट्रपति चुनाव बिना एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के बीत गया यह वाकई महत्त्वपूर्ण है.
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उप राष्ट्रपति चुनाव के साथ ऐसा नहीं है. विपक्ष के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी पर प्रत्यक्ष तौर पर शिवसेना ने मुंबई हमले के मुख्य अपराधियों में से एक याकूब मेमन की फांसी का विरोध करने का आरोप लगाते हुए यह प्रश्न उठाया है कि क्या ऐसे व्यक्ति को उप राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए? हालांकि सोशल मीडिया पर यह मुद्दा कई दिनों से तैर रहा था.
हम शिवसेना के समर्थक हों या विरोधी..उसके प्रश्न को नकार नहीं सकते हैं. 1993 का मुंबई हमला भारत में पहला आतंकवादी श्रृखंलाबद्ध विस्फोट था. इसमें 257 लोग मारे गए एवं 713 घायल हुए. उसके आतंकवादियों को लेकर देश में स्वाभाविक ही तीखा उबाल है. यह उबाल उस समय दिखा जब याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के पूर्व यानी 30 जुलाई 2015 की रात्रि को उच्चतम न्यायालय को सुनवाई के लिए विवश करने के खिलाफ देशभर में आक्रोश पैदा हुआ. लोगों को लग रहा था कि एक आतंकवादी, जिस पर आतंकवाद की साजिश का आरोप प्रमाणित हो चुका है, उच्चतम न्यायालय जिसके बारे में फैसला दे चुका है, पुनरीक्षण याचिका तक खारिज हो गई है, राष्ट्रपति ने तथ्यों के आधार पर उसकी दया याचिका अस्वीकार कर दी है..उसको बचाने के लिए आगे आना वास्तव में देश विरोधी कदम है. यह देश भर की आम धारणा थी. हालांकि, इस देश में हर व्यक्ति को अपना मत स्वतंत्रता से व्यक्त करने का अधिकार है. किंतु आप कोई मत व्यक्त करते हैं तो उसका कुछ-न-कुछ प्रभाव भी होगा, उसके विरु द्ध लोगों की प्रतिक्रियाएं भी होंगी और उसे भी स्वीकार करना होगा.
कुछ मुट्ठी भर लोगों ने देश में ऐसा वातावरण बना दिया था मानो याकूब मेमन को अन्यायपूर्ण तरीके से फांसी दी जा रही है. यह हमारे उच्चतम न्यायालय के फैसले को भी प्रश्नों के घेरे में लाने वाला था और राष्ट्रपति को भी. उच्चतम न्यायालय विरले में विरलतम मामलों में ही मृत्युदंड देता है. उस फैसले में सारे साक्ष्य और तर्क लिखित हैं, जिसे कोई भी देख सकता था. 19 वर्ष उस पर मुकदमा चला था. उच्चतम न्यायालय में भी उसके पक्ष में इतने वकील खड़े हो गए कि 10 महीने तक सुनवाई चली. ऐसा कम ही होता है. न्यायालय ने साक्ष्यों के आधार पर यह माना था कि याकूब की साजिश रचने से लेकर विस्फोट कराने तक दो मुख्य अभियुक्तों दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेनन के बाद सर्वप्रमुख भूमिका थी. इसने ही गोला-बारूद, हथियार आदि लाने, उन्हें विस्फोट के लिए निर्धारित स्थानों पर पहुचाने से लेकर विस्फोट कराने वालों को 21 लाख 90 हजार रु पया दिया था. उच्चतम न्यायालय ने सबूतों के आधार पर पूरे टाइगर मेनन परिवार को दोषी माना. परिवार के चार सदस्यों भाई इस्सा मेनन, यूसुफ मेनन एवं सुलेमान की पत्नी रूबीना मेनन पर भी साजिश एवं अंजाम देने के आरोप को स्वीकार किया, टाइगर मेनन भगोड़ा घोषित है एवं पिता अब्दुर्रज्जाक मर चुका है.
हम यहां इसमें विस्तार से नहीं जा सकते. गोपाल कृष्ण गांधी को इन सारी बातों का पता नहीं हो ऐसा नहीं हो सकता है. बावजूद इसके यदि वो याकूब मेमन के बचाव में उतरे तो फिर उनके बारे में क्या कहा जाएगा? 30 जुलाई के एक दिन पहले 29 जुलाई को उन्होंने राष्ट्पति को पत्र लिखा था. उसमें वे कई तर्क देते हैं. इस दुनिया में ऐसे लोग हैं जो मृत्युदंड को उचित नहीं मानते हैं. ऐसे लोग सिद्धांतत: इसके खिलाफ हैं और उनका अपना मत है. अगर गोपाल कृष्ण गांधी यहीं तक अपने को सीमित रखते तो फिर यह कहा जा सकता है कि यह उनका विचार है. किंतु वो याकूब मेमन के पक्ष में कई तर्क देते हैं. उनमें कई तर्क वही हैं, जो याकूब को निर्दोष मानने वाले उसके समर्थक वकील, तथाकथित मानवाधिकारवादी और सक्रियतावादी दे रहे थे. वे कहते हैं कि याकूब मेमन ने खुफिया एजेंसियों का सहयोग किया, स्वयं को उनके हवाले किया, पूरे मुकदमे में सहयोग किया ..इसलिए उसे फांसी नहीं दिया जाना चाहिए. यह जानकारी उनके पास कहां से आ गई? वे सीधे-सीधे उसे निर्दोष साबित कर रहे थे. उन्होंने याकूब को बचाने के लिए जितने संभव तर्क हो सकते थे दिए. मसलन, इसके दो दिनों पहले पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का निधन हुआ था. वे कहते हैं कि डॉ. कलाम मृत्युदंड के विरोधी थे इसलिए उनको श्रद्धांजलि यही होगी कि याकूब को फांसी न दी जाए. इस सीमा तक एक आतंकवादी को बचाने के लिए आगे आने का क्या मतलब है?
निजी तौर पर उनका कुछ भी विचार हो तो उसका विरोध किया जा सकता है, लेकिन वो बहुत ज्यादा चिंता पैदा नहीं करता, क्योंकि वो न किसी सरकारी पद पर थे और न उसके उम्मीदवार थे. किंतु जब वे उप राष्ट्रपति के उम्मीदवार हो गए तब तो चिंता पैदा होती है. फिर तो प्रश्न पैदा होता है कि क्या ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए था? उप राष्ट्रपति राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उसकी भूमिका में आ जाता है. यदि किसी कारण से राष्ट्रपति की मृत्यु हो गई और उप राष्ट्रपति के रूप में गोपाल कृष्ण गांधी के हाथों ऐसे आतंकवादियों की फाइल आई तो वे उसे क्षमादान दे देंगे. कांग्रेस स्वयं याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के पक्ष में थी. उसने ही कसाब और अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाया. यदि गोपाल कृष्ण के हाथों होता तो इनको भी फांसी नहीं मिलती. गोपाल कृष्ण की ईमानदारी, उनके अध्ययन, ज्ञान आदि पर किसी को संदेह नहीं हो सकता. लेकिन याकूब के मामले में उनकी भूमिका उप राष्ट्रपति उम्मीदवार के संदर्भ में उन्हें पूरी तरह कठघरे में खड़ा करती है.
अगर गोपाल कृष्ण फांसी के विरु द्ध हैं तो याकूब के पहले उन्होंने कितने लोगों की फांसी का विरोध किया था? उन्होंने कितने लोगों को क्षमादान देने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखा था? उन्होंने कितने सजायाफ्ता के मामले का अध्ययन कर उसे निर्दोष साबित करने की कोशिश की थी? अगर इन तीनों प्रश्नों का उत्तर यह हो कि गोपाल गांधी लगातार ऐसा करते रहे हैं तो उनके चरित्र पर संदेह खड़ा नहीं होगा. किंतु इन प्रश्नों का उत्तर ऐसा नहीं आता. पता नहीं कांग्रेस ने क्या सोचकर माकपा द्वारा उनको उम्मीदवार बनाने का सुझाव स्वीकार कर लिया?
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