पाकिस्तान : पाले-पोसे आतंक का कुफल

Last Updated 22 Jul 2017 06:09:42 AM IST

अमेरिकी विदेश विभाग ने हाल ही में आतंकवाद पर वर्ष 2016 के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की है.


पाकिस्तान : पाले-पोसे आतंक का कुफल

इसमें निर्विवाद रूप से इस तथ्य को पुन:स्थापित किया गया है कि अल-कायदा, उसके दक्षिण एशियाई प्रारूप (एक्यूआईएस), और हकानी नेटवर्क सहित कुछ अन्य आतंकी संगठनों को पाकिस्तान में अभी भी सुरक्षित ठिकाने (सेफ हैवेन) आसानी से उपलब्ध हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पाकिस्तान ने उन आतंकवादी संगठनों विशेषकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (पाकिस्तानी तालिबान) के खिलाफ तो प्रभावी कार्रवाइयां की हैं, जिनका लक्ष्य पाकिस्तान में अशांति फैलाना रहा है, लेकिन उन संगठनों, जिनका उद्देश्य पाकिस्तान के बाहर (अफगानिस्तान और भारत) अशांति फैलाना है, पर कार्रवाई का नितांत कम है.

इस श्रेणी में अफगान  तालिबान के अलावा, लश्कर-ए-तय्यबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों को रखा गया है जो भारत को निशाना बनाने के लिए जाने जाते हैं. इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के साथ ही भारतीय मीडिया के एक धड़े ने इसे भारत की सफलता के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया है. भारत जैसे बड़े और लोकतांत्रिक देश के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण विषयों/मुद्दों पर इस तरह की जल्दबाजी ठीक नहीं है. रिपोर्ट से यह बात सामने आती है कि जिन तथ्यों का हवाला देकर उन्हें भारत की रणनीतिक और कूटनीतिक सफलता के रूप में पेश किया जा रहा है, वे दक्षिण एशिया समेत वैश्विक समुदाय को पहले से ही ज्ञात हैं. इस संदर्भ में पर्याप्त साक्ष्य भी उपलब्ध हैं.

रिपोर्ट में भारत से संबंधित खंड में कहा गया है कि भारत लगातार माओवादी और पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों के हमलों का शिकार होता रहा है, और भारतीय प्राधिकारी जम्मू-कश्मीर में होने वाली आतंकी घटनाओं पर पाकिस्तान को आरोपित करते रहे हैं.

रिपोर्ट की भाषा और शब्दावाली इस तथ्य की ओर इशारा करती है कि अमेरिका भारत में होने वाली पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी गतिविधिधों में उसे प्रत्यक्ष रूप से दोषी बताने से बचना चाहता है. रिपोर्ट में इस बात को भी प्रमुखता दी गई है कि वर्ष 2016 के दौरान भारत ने अमेरिका से आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाना चाहा था. भारत काफी पहले से ही आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दों पर अन्तरराष्ट्रीय सहयोग का हिमायती रहा है. भारत और अमेरिका के बीच इस मुद्दे पर लगातार जारी सहयोग इसी नीति के अनुरूप है.

पाकिस्तान से संबंधित खंड में पाकिस्तान को आतंकवाद-विरोधी अभियान में अमेरिका के एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में रेखांकित किया गया है. यह भी बताया गया है कि पाकिस्तान अभी भी अच्छे और बुरे आतंकी संगठनों में भेद करता है. दोनों खंडों (भारत और पकिस्तान) को एक साथ विश्लेषित करने से यह बात काफी स्पष्ट हो जाती है कि अमेरिकी नीतियों में पाकिस्तान को लेकर किसी मूलभूत परिवर्तन की गुंजाइश न के बराबर है. अंग्रेजी में कहावत है कि आपकी कार्रवाई आपके शब्दों से ज्यादा प्रभावी होती है. अमेरिका जैसे ताकतवर देश के लिए तो यह कार्य बहुत मुश्किल भरा भी नहीं माना जाता. इस तरह की रिपोर्ट भविष्य में किसी ठोस कार्रवाई का आधार बने तो निश्चित ही पाकिस्तान को अपना नजरिया और व्यवहार दोनों बदलने को विवश कर सकती है.

जहां तक पाकिस्तान प्रायोजित भारत-विरोधी आतंकवादी संगठनों का प्रश्न है, पाकिस्तान के सुरक्षा अधिष्ठानों द्वारा अपनाई गई नीतियों में कोई मूलभूत परिवर्तन के आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं. सीमापार से प्रायोजित आतंकवाद एक गैर-परंपरागत चुनौती है, जिसे पाकिस्तान और उसकी सेना एक रणनीतिक अस्त्र और विदेश नीति के एक औजार के तौर पर उपयोग करते हैं. ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों की क्षमताओं में स्वाभाविक अंतर रहा है जो इनकी सैन्य ताकतों में भी परिलक्षित होता है. पाकिस्तानी रणनीतिकार भलीभांति जानते थे/हैं कि उनके लिए इस अंतर को खत्म करना संभव नहीं होगा. ऐसी स्थिति में भारत जैसे देश को लगातार उलझाए रखने के लिए गैर-परंपरागत तरीकों का उपयोग करना उपयुक्त समझा जाता है. लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और इस तरह के अन्य संगठन इसी सोची-समझी रणनीति का एक हिस्सा हैं. 

इस रणनीति के दूरगामी परिणाम किसी भी दृष्टिकोण से पाकिस्तान के खुद के हित में नहीं थे, लेकिन इस तथ्य को पाकिस्तान के रणनीतिकारों ने लगातार नजरअंदाज किया जिसका परिणाम हुआ कि पाकिस्तान स्वयं आतंकी गतिविधियों की चपेट में आ गया. तहरीक-ए-तालिबान और इस तरह के अन्य संगठन जो आज पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए एक खतरा बनकर उभरे हैं, वास्तव में भारत के प्रति अपनाई गई उसकी नीतियों का ही नतीजा हैं. वर्ष 2013 में पहली बार पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर आंतरिक सुरक्षा को देश के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था. हालांकि, इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए जो नीति अपनाई गई, उसमें एक बड़ी खामी है. इस नीति के केंद्र में पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा चलाए गए सैन्य ऑपरेशन प्रमुख हैं. अभी जर्ब-ए-अज्ब और रद्द-उल-फसाद जैसे सैन्य ऑपरेशन चल रहे हैं, जो समस्या के लक्षणों का तो इलाज कर रहे हैं, लेकिन उसकी जड़ों पर प्रहार से कतरा रहे हैं. आतंकवाद की जड़ें बिना भारत-केंद्रित आतंकी संगठनों को निशाना बनाए खत्म नहीं की जा सकतीं. यह तभी संभव है जब पाकिस्तान अपने राष्ट्रीय अफसाने में मूलभूत सुधार करे.

नये सामाजिक समझौते का प्रारूप तैयार करे. जहां तक भारत के सामने पाकिस्तानी व्यवहार में आमूलचूल परिवर्तन लाने की चुनौती है, उसे किसी भी दृष्टिकोण से आसन नहीं माना जा सकता. हालांकि, पिछले सात दशकों का इतिहास हमें बताता है कि सैन्य तैयारी निश्चित रूप से जरूरी है, लेकिन सैन्य हस्तक्षेप और कार्रवाइयों की भी एक सीमा है. इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने के लिए भारत को एक दूरगामी रणनीति की जरूरत है, जो एक तरफ तो अपनी आतंरिक व्यवस्था को चुस्त-दुरु स्त करे तथा दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के मुद्दे पर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर जोर दे.
(लेखक आईसीडब्ल्यूए से संबद्ध हैं और इनकी पुस्तक Pakistan Army: Institution that Matters शीघ्र कप्रकाश्य है)

आशीष शुक्ल
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment