बिहार : मुक्ति और संगति वाली युक्ति

Last Updated 15 Jul 2017 05:33:22 AM IST

बिहार में चल रहे राजनीतिक ऊहापोह का अंत चाहे जो भी हो, जीत नीतीश कुमार की ही होगी.


बिहार के सियासी बिसात पर नीतीश ने खुद को ऐसी जगह ला खड़ा किया है, जहां से अब उन्हें चित या पट की चिंता नहीं. लालू पुत्र और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव खुद इस्तीफा देते हैं या उन्हें हटाया जाता है, दोनों परिस्थितियों में जेडीयू का आरजेडी से तलाक तय है. नीतीश कुमार का मकसद भी यही है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आज पैदा हुई इन सारी परिस्थितियों का तानाबाना खुद-ब-खुद बुनता गया या राजनीति के किसी अच्छे स्क्रिप्ट राइटर ने शॉट दर शॉट और फ्रेम दर फ्रेम यह पटकथा लिखी है.

नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बतौर पेश किया गया तो नीतीश कुमार ने इसका विरोध करते हुए बीजेपी से नाता तोड़ लिया था. नीतीश ने विरोध का कारण मोदी की गुजरात दंगों वाली कथित छवि बताया था. उस वक्त नीतीश के मन में यह लालसा कुलांचे मार रही थी कि अगर केंद्र में गठबंधन सरकार बनी तो वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं. लेकिन चुनाव-नतीजों ने उनकी तमाम लालसाओं पर पानी फेर दिया. बीजेपी की इस बड़ी जीत ने नीतीश को इतनी गहरी चोट दी कि नैतिकता के आधार पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अति पिछड़ा की राजनीति खेलते हुए जीतन राम मांझी को बिहार की गद्दी सौंप दी.

मगर केंद्र की बीजेपी सरकार लोकप्रिय हो रही थी और मांझी अपने मेंटॉर नीतीश कुमार का दर्द कम करने की बजाय मोदी से नजदीकियां बढ़ाने में लग गए. नीतीश को अपना चला हर दांव अब उल्टा पड़ने लगा था. बहरहाल, मांझी को हटाकर एक बार फिर नीतीश बिहार की सत्ता पर काबिज हुए और विधान सभा चुनाव की रणनीति बनाने लगे. बीजेपी की बढ़ती लोकप्रियता को चुनौती देने के लिए चौंकाऊ फैसला हुआ कि नीतीश और लालू एक बार मिलकर चुनाव लड़ेगी. लेकिन सबके मुंह से यही निकला कि यह बेमेल शादी है और नहीं चलेगी. विधान सभा चुनाव में इस जोड़ी ने कमाल दिखा दिया. लालू, नीतीश और कांग्रेस का महागठबंधन भारी बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गया. नीतीश मुख्यमंत्री बने और लालू पुत्र तेजस्वी यादव को डिप्टी सीएम बनाना पड़ा. सरकार तो बन गई थी, लेकिन नीतीश को लालू की तरफ से आ रहे कई दबावों से दो-चार होना पड़ रहा था. जोड़ी स्वाभाविक नहीं थी.

फिर नीतीश के कई फैसलों को आरजेडी का सीधा समर्थन नहीं मिल रहा था. इसी खटपट के बीच जब नीतीश ने शराबबंदी का कठोर फैसला किया तो दोनों के बीच अब तक दबा मनभेद सतह पर आ गया. परिस्थितियां नीतीश के लिए एक बार फिर मुश्किल का सबब बन रही थीं. कभी मुलायम का समर्थन नहीं मिला तो कभी ममता ने नीतीश में दिलचस्पी नहीं दिखाई. नीतीश अच्छी तरह समझते हैं कि केंद्र का साथ रहे तो राज्य सरकारें कितनी प्रभावशाली हो जाती हैं. बस यहीं से शुरू हो गई बीजेपी के प्रति नीतीश की दूसरी मोहब्बत की दास्तान. जरूरत थी तो बस एक अच्छी स्क्रिप्ट की.

आठ नवम्बर को नोटबंदी के एलान के ठीक बाद नीतीश ने इसी सही फैसला बताया जबकि लालू ने इसे देश के लिए अहितकर फैसला बताया. यह संकेत काफी था कि अब उनके रास्ते अलग-अलग हैं, लेकिन दोनों के बीच तलाक के लिए सिर्फ  यही एक कारण शायद नाकाफी था. जरूरत थी तो बस इतनी ही कि लालू यादव या उनसे जुड़े लोगों के कुछ ऐसे दोष सामने आएं, जिस पर सवारी की जा सके. लालू खुद तो दागदार थे ही अब बारी बेटे और बेटियों की थी. सीबीआई, ईडी और आईटी सब अपने काम पर लग गए. सो अब सच्चाई सबके सामने हैं. वो कहते हैं न कि बाप का लिया कर्ज बेटे ही तो चुकाते हैं. तेजस्वी भी चुकाएं तो इसमें नुकसान क्या है. तेजस्वी यादव चौतरफा घिरने के बाद विचलित भी हो चले हैं. कभी महिला टीवी पत्रकार से र्दुव्‍यवहार तो कभी दूसरे पत्रकारों की उनके रक्षकों द्वारा पिटाई. खूंटे पर बैठना ही मजबूरी हो तो कम से कम हिलना-डुलना तो बंद कर ही देना चाहिये.

कुल मिलाकर नीतीश कुमार के लिये अब विन-विन परिस्थिति है. एक युक्ति ने दोनों काम कर दिया-आरजेडी से मुक्ति भी और बीजेपी यानी नरेन्द्र मोदी की संगति भी. राष्ट्रपति पद के लिये नीतीश कुमार बीजेपी उम्मीदवार को पहले ही अपना समर्थन दे ही चुके हैं. अब बचा है तो सिर्फ एक औपचारिक एलान जेडीयू के एनडीए में शामिल होने का, जो कुछ हफ्तों की ही बात लगती है.

हर्ष रंजन
सहारा न्यूज नेटवर्क के डिजिटल विंग


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