कश्मीर : मिसाली बदलाव का दौर

Last Updated 15 Jul 2017 05:25:59 AM IST

दशकों पूर्व इस स्वर्ग, जिसे कश्मीर कहा जाता था, में ऐसे लोग आबाद थे जो पीर और ऋषियों के बताए मार्ग का अनुसरण करते थे. वे प्रेम, सहिष्णुता, परस्पर अस्तित्व और शांति के भावों में रचे-पगे थे.


लेकिन इसी के साथ उनका शांतिपूर्ण जीवन सीमा-पार के और इस सूबे के भीतर भी मौजूद कतिपय तत्वों को रास नहीं आया. सो, राष्ट्रवादी और धार्मिक ललक और शिष्टाचार को नेस्तनाबूद करने के संगठित साजिश शुरू हो गए.

इस शांतिपूर्ण स्वर्ग को विघटित करने की गरज से लोगों की उमंगों, भावनाओं, गिले-शिकवों और कुंठाओं का इस्तेमाल करने का खेल शुरू हो गया. विभिन्न समुदायों में फूट डालने के प्रयास हुए. पैशाचिक एजेंडा को सिरे चढ़ाने के लिए तमाम पैसा झोंक दिया गया. धार्मिक हस्तक्षेप किए जाने लगे. लोगों के बीच सौहार्द को तार-तार कर डालने की कोशिश की गई. भ्रमित कर देने वाली धार्मिक व्याख्याओं का प्रचार किया गया. सीधे-भोले-भाले युवाओं को जेहाद के लिए तैयार किया गया. समय के साथ भीतर-भीतर जारी ये कोशिशें घनी होती गई. और 1989 से ये स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगीं. और सुंदर धरती कश्मीर इनसानियत की कत्लगाह बन गई.

पाकिस्तान जब पारंपरिक तरीके-जिसमें खासी संख्या में सैनिकों की जरूरत पड़ती है और खासा आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है-से पार पाने में विफल रहा तो उसने भारत को चोटिल करने को छद्म युद्ध छेड़ दिया. 1989 के बाद पाकिस्तानी पक्ष ने पीओके के मुजफ्फराबाद से सटी नियंत्रण रेखा के पास तमाम शिविरों में भ्रमित युवाओं को प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया. युवाओं के गुटों के लिए यह क्षेत्र पनाहगाह, प्रशिक्षण एवं समन्वय स्थल बन गया था. उन्हें यहां हथियार चलाना और ग्रेनेड से हमले करना सिखाया जाता था. पकड़ में न आने की चतुराई सिखाई जाती थी. घात लगाकर हमले और घुसपैठ करने के तरीके समझाए गए.

हाल के समय में प्रशिक्षण में जिहाद, साइबर युद्ध, दूरसंचार तकनीक के नवीनतम उपकरणों, काउंटर इंटेरोगेशन, प्रचार, समझाइश, वॉयसओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल जैसे साइबर उपकरणों, सोशल मीडिया के उपयोग और कूटलेखन जैसी बातें भी  शामिल हो गई हैं. पहले आजादी या कथित के नाम पर उग्रवादी को जुटाया जाता था, लेकिन हाल के वर्षो में विशिष्ट किस्म का कायाकल्प देखने को मिला है. आजादी के बजाय खिलाफत मुखर होने लगी है, और इस सिलसिले में स्थानीय शिक्षित युवाओं की भर्ती से रवानी आई है. इस कार्य में सोशल मीडिया से खासी मदद मिली है. पहले उग्रवादी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए पैसा हवाला या किसी बिचौलियों के जरिए पहुंचाया जाता था. कश्मीर स्थित कारोबारियों और उद्योगपतियों की मार्फत भी भेजा जाता था. इस धन को पाकिस्तान स्थित हैंडलरों के कहे अनुसार अलगाववादियों, बुद्धिजीवियों और उग्रवादियों में तकसीम किया जाता था. पाकिस्तान से बारहमासी धन प्रवाह होता है. पाकिस्तान के अलावा अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन, मध्यपूर्व के सऊदी अरब जैसे देशों से भी धन पहुंचता है. अब पैसा पहुंचाने में अंडरइन्वॉयसिंग, ट्रांसबॉर्डर बार्टर ट्रेड और संपत्ति एवं परिवहन जैसे क्षेत्रों में निवेश के जरिए भी धन पहुंचाया जाने लगा है.

एनजीओ, शैक्षणिक और मानवीयता को इमदाद के नाम से भी पैसा पहुंचता है. उग्रवाद के शुरुआती समय में उग्रवादी कुरियर सेवाओं, लैंडलाइन टेलीफोन और रेडियो सेट के साथ ही शारीरिक संकेतों के जरिए संपर्क साधते थे. आज उनका तकनीकी तंत्र बेहद मजबूत हो चुका है. जरूरी हो गया है कि उनके संपर्क नेटवर्क को पूरी तरह से तितर-बितर किया जाए. इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के महत्त्व को नीति-निर्माताओं और निर्णयकर्ताओं को समझना होगा. बीते करीब तीन दशक चरम उग्रवाद के रहे. लेकिन 2015 के बाद तो ऐसा दौर आ गया कि सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई. उससे पहले 2010 से पत्थरबाजी का दौर आरंभ हो गया था. बहरहाल, किसी चर्चा, चाहे यह सरकार के स्तर पर हो या कानून-व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियों, सुरक्षा एजेंसियों, खुफिया एजेंसियों या  मीडिया के स्तर पर हो, जरूरी है कि मुद्दों के समाधान में और लोगों के हितों को लेकर मानवीयता का पुट झलके. 2016 में उग्रवादी गतिविधियों में  इजाफे से पूर्व तक मानवीय पुट ने खासी मदद की थी. लेकिन अलगाववादियों और उग्रवादियों द्वारा अड़ियल रुख अपना लिए जाने के बाद से यह अवसर भी अब ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता.

हमारी सरकार को अपने तौर-तरीकों पर नये सिरे से गौर करना होगा. समर्पण कर चुके उग्रवादियों को खास दायित्व सौंपे जाने वाली इकवानी अवधारणा का इस्तेमाल किया जाना आज की तारीख में भी माकूल हो सकता है. इकवानी ने नब्बे के दशक में स्थिति को बिगड़ने से बचाने में रचनात्मक भूमिका निभाई थी. उग्रवादियों से बातचीत के सिलसिले को जमाने में इकवानी की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया गया है. बच रहे कुछ इकवानी का नियंत्रणकारी एजेंसियों  द्वारा उनकी उपेक्षा  किए जाने के चलते उग्रवादी गुटों ने खात्मा भी कर दिया है. जिन अन्य पहलुओं पर विचार किया जा सकता है, उनमें राजनीतिक-ठेकेदार गठजोड़ की निगरानी रखा जाना भी है.

उन क्षेत्रों में जहां धार्मिक-राजनीतिक संगठन जमात-ए-इस्लाम मजबूत स्थिति में है, वहां आर्थिक और संपत्तियों के लेन देन और बकरवाल के आवागमन पर भी नजर रखी जानी चाहिए. इसके अलावा, भारतीय सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस ऐसी ताकत है, जिससे पार पाना बेहद कठिन है. उनके दृढ़ निश्चय पर सवाल नहीं उठाए जा सकते. स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप/स्पेशल टास्क फोर्स को प्रमुख भूमिका सौंपा जाना आवश्यक है. उनकी कार्रवाइयों की प्रशंसा और समर्थन होना चाहिए. बहरहाल, पाकिस्तान के साथ बातचीत चलाए रखने की गरज से हर संभावना और अवसर को गंवाया नहीं जाना चाहिए. लेकिन कूटनीति से लेकर बातचीत के तमाम जरिये कोई नतीजे नहीं दे रहे. इसलिए जरूरी हो गया है कि गैर-पारंपरिक तरीके आजमाए जाएं ताकि स्थिरता आए.

बिपिन पाठक
लेखक, मिलिट्री इंटेलिजेंस के सेवानिवृत्त कर्नल


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