आरटीआई : दायरा बढ़ाने की जरूरत
पूर्व राजनीतिक दलों को लंबे समय से आरटीआई के जद में लाने की मांग की जा रही है, लेकिन अभी तक कोई भी दल इसके लिए तैयार नहीं है.
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उनकी बेरु खी के कारण ही चुनावों में कालेधन का इस्तेमाल किया जाता रहा है. एक अनुमान के मुताबिक मई, 2014 के लोक सभा चुनाव में अरबों रुपये के कालेधन का उपयोग राजनीतिक दलों ने किया था. मामले में राजनीतिक दल हमेशा से चुनाव आयोग को गलत जानकारी देते रहे हैं.
भारत में आरटीआई़ अधिनियम ने नई क्रांति का सूत्रपात किया है. इस कानून के तहत आम एवं खास दोनों सूचना मांग सकते हैं. आरटीआई ने सरकारी मुलाजिमों एवं नेताओं को खौफजदा कर दिया है. इस कारण आरटीआई कार्यकर्ताओं को सावधानी से काम करना पड़ रहा है, क्योंकि किसी सूचना से बड़ी हस्ती के जुड़े रहने पर आवेदक के जान को खतरा रहता है. 2005 यानी आरटीआई के अस्तित्व में आने के बाद से अनेक आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है. आरटीआई के तहत हर नागरिक को सार्वजनिक सूचना पाने का अधिकार है.
फिर भी वैधानिक गरिमा, राष्ट्रीय हित, न्यायालय के विचाराधीन विषय, मंत्रिमंडल के फैसले आदि के मामले में सूचना दिए जाने से मना किया जा सकता है. लेकिन गलत और भ्रामक सूचना देने के मामले भी प्रकाश में आए हैं. आरटीआई कार्यकर्ताओं को उत्पीड़ित करने वाली घटनाओं में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. पुलिस-प्रशासन और सूचना आयोग के बीच तालमेल के अभाव के कारण घोर अराजकता का माहौल है.
सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार का शुरू से ही बोलबाला रहा है, लेकिन इस मामले में निजी क्षेत्र को भी क्लीन चिट नहीं दी जा सकती. अस्तु, आरटीआई कानून निजी संस्थानों में उतना ही जरूरी है, जितना सरकारी संस्थानों में. जिन संस्थानों में जनता का पैसा लगा हुआ है, उनको आरटीआई के दायरे में लाया जाना चाहिए. कोई संस्थान निजी है, सिर्फ इस वजह से आम जनता को सही सूचना प्राप्त करने से महरूम नहीं किया जा सकता. एक लोकतांत्रिक देश में सूचना पाने का हक हर व्यक्ति को है. साबुन-तेल से लेकर हरी सब्जियां तक कॉरपोरेट्स बेच रहे हैं. शिक्षा एवं स्वास्थ जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी कॉरपोरेट्स का दखल है. नेता जनता के प्रतिनिधि होते हैं. वे ही सरकार के समक्ष जनता की बातों व समस्याओं को रखते हैं. इस तरह से आम आदमी का कॉरपोरेट्स एवं नेताओं से अटूट जुड़ाव होता है.
ऐसे में कॉरपोरेट्स और राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखना जनता के साथ सरासर धोखा है. इसके अतिरिक्त दूसरी अपील के लिए 90 दिनों की समय-सीमा मुर्करर किए जाने से कुछ मामलों में सूचना मिलने में वर्षो लग जाते हैं. पूर्व मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का मानना है कि आरटीआई के माध्यम से समाज के वंचित तबके को उसका अधिकार मिल सकता है. यह वह हथियार है, जिसके माध्यम से आम आदमी शासन तंत्र में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकता है. मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्र भी कहते हैं कि यह कानून शासन को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है, मगर बीते सालों इस कानून के दुरु पयोग के मामले देखने में आए हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का मानना है कि लोकहित के नाम पर लोग निर्थक, बेमानी और निजी सूचनाओं की मांग कर रहे हैं, जिससे मानव संसाधन और सार्वजनिक धन का असमानुपातिक व्यय हो रहा है. साथ ही, इसके द्वारा निजता में दखलअंदाजी भी की जा रही है. डॉ. सिंह का यह भी कहना है कि सूचना का अधिकार कानून से किसी की निजता पर हमला होता है, तो इस कानून के दायरे को सीमित किया जाना चाहिए. उन्होंने आरटीआई अधिनियम और निजता का अधिकार के बीच संतुलन बनाए रखने की जरूरत पर बल दिया है. इन खामियों के बावजूद भी आरटीआई के लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता. आज आरटीआई कानून समाज के दबे-कुचले और वंचित लोगों के बीच उम्मीद की आखिरी किरण है. इसलिए मोदी सरकार को मामले में हस्तक्षेप करते हुए निजी और राजनीतिक दलों को भी आरटीआई कानून के जद में लाने के लिए आवश्यक कदम उठाना चाहिए ताकि सभी तरह के तंत्र में पारदर्शिता और संबंधित लोगों की जवाबदेही को सुनिश्चित किया जा सके. इससे मोदी सरकार के प्रति लोगों का विश्वास एवं भरोसा और भी ज्यादा बढ़ेगा.
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