भीड़ का हमला : पीएम की चुप्पी और बोली
आखिरकार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भीड़ की हिंसा के खिलाफ बोले. यह उपयुक्त ही था कि गांधी के साबरमती आश्रम से उन्होंने कथित गोरक्षकों की हिंसा के खिलाफ दो-टूक संदेश दिया.
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‘गोभक्ति के नाम पर लोगों की जान लेना स्वीकार्य नहीं है.’ प्रधानमंत्री ने इसके साथ यह भी जोड़ा कि, ‘इस चीज को महत्मा गांधी कभी मंजूर नहीं करते. यह विनोबा भावे के जीवन का संदेश नहीं है.’ प्रधानमंत्री ने ‘देश के मौजूदा हालात’ पर अपने ‘विक्षोभ तथा पीड़ा’ को बलपूर्वक प्रकट किया और इसके लिए ‘हम कर क्या रहे हैं’ और ‘हमें हो क्या गया है’ जैसे जुमलों का प्रयोग किया. उनकी बात स्पष्ट थी और शब्द प्रभावाली.
किसी से छुपा नहीं है कि प्रधानमंत्री का बयान पंद्रह वर्षीय जुनैद की सांप्रदायिक घृणा-हत्या की पृष्ठभूमि में देश भर में उठी विरोध की मुख्यत: स्वत:स्फूर्त लहर की पृष्ठभूमि में आया था. देश की राजधानी की ऐन बगल में एक स्थानीय ट्रेन में पंद्रह वर्षीय जुनैद को भीड़ ने सिर्फ इसलिए पीट-पीट कर मार दिया और उसके दो भाइयों को चाकुओं से गंभीर रूप से घायल कर दिया कि वे, दाढ़ी-टोपी-पोशाक से मुसलमान दिखाई देते थे. दो महीने पहले, राजधानी के ही निकट अलवर में कथित गोरक्षकों ने गोतस्करी के संदेह के नाम पर, मेवाती मवेशी पालक पहलू खान की राष्ट्रीय राजमार्ग पर पीट-पीटकर हत्या कर दी थी. यहां याद दिला देना गैरजरूरी नहीं होगा कि पिछले दो साल में दूसरा मौका है, जब प्रधानमंत्री कथित गोरक्षकों की गुंडागर्दी के खिलाफ बोले हैं. इससे पहले पिछले अगस्त में प्रधानमंत्री ने स्वयंभू गोरक्षकों के खिलाफ वास्तव में इससे भी कड़े शब्दों का प्रयोग किया था और उनमें से प्रचंड बहुमत को ऐसे ‘समाज विरोधी’ तत्व करार दिया था, जो गोरक्षा के नाम पर ‘दूकानें चला रहे हैं.’
बेशक, प्रधानमंत्री का उक्त बयान भी राजधानी के निकट दादरी में गोमांस रखने की अफवाह के जरिए उकसाई गई भीड़ द्वारा पचास वर्षीय अखलाक की घर में घुसकर पीट-पीटकर हत्या किए जाने और गुजरात में उना में मृत मवेशियों का चमड़ा उतारने वाले चार दलितों की कथित गोरक्षकों द्वारा ही सार्वजनिक रूप से हंटरों से चमड़ी उधेड़े जाने की पृष्ठभूमि में आया था. इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने साल भर पहले कथित गोरक्षकों की जो आलोचना की थी, अब साबरमती आश्रम की शताब्दी के मौके पर साल भर बाद उसी को दोहराया है. यह सवाल पूछा जाना स्वाभाविक है और पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री को साल भर बाद अपनी बात को दोहराने की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर है कि इस एक साल में गोरक्षा के नाम पर समाज-विरोधी गतिविधियों में कोई कमी नहीं आई है. इसके लिए वाकई किसी साक्ष्य की जरूरत हो तो सिर्फ इतना याद दिला देना काफी होगा कि जिस समय प्रधानमंत्री साबरमती में कथित गोरक्षकों की हरकतों से भिन्न वास्तविक गोसेवा का मर्म समझा रहे थे, ठीक उसी समय झारखंड में रामगढ़ जिले के गिद्दी इलाके में गोमांस का शोर मचाकर मांस के व्यापारी अलीमुद्दीन अंसारी की पीट-पीटकर हत्या की जा रही थी, और उनकी गाड़ी को जलाया जा रहा था. और प्रधानमंत्री के उक्त बयान के अगले ही दिन असम में गोरक्षा के नाम पर ही मवेशी ले जा रहे लोगों पर भीड़ का हमला हुआ.
साफ है कि प्रधानमंत्री का साल भर पहले बोलना इन समाजविरोधी तत्वों पर अंकुश लगाने में नाकाम रहा है. लेकिन क्यों? प्रधानमंत्री के दो-टूक शब्दों में कथित गोरक्षकों को समाज-विरोधी तत्व करार देने के बावजूद शासन की ओर से उनकी गतिविधियों के खिलाफ ‘सख्ती’ का रत्तीभर संकेत नहीं दिया गया. उल्टे इन दस महीनों में खास तौर पर भाजपा-शासित राज्यों में इन समाज-विरोधी तत्वों के हौसले और बढ़े हैं. जाहिर है कि इस मामले में करनी के सिरे से नदारद होने की वजह से ही ‘मजबूत’ प्रधानमंत्री भी इन ताकतों के सामने लाचार नजर आ रहे हैं. प्रधानमंत्री की लाचारी की वजह समझना मुश्किल नहीं है. ये समाज-विरोधी तत्व और कोई नहीं उसी संघ परिवार के हिस्से हैं, जिसका हिस्सा खुद प्रधानमंत्री हैं. राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते सार्वजनिक मंच से बोलना एक बात है, पर जमीनी स्तर पर वे अपने परिवार-बंधुओं के खिलाफ प्रहार कैसे कर सकते हैं. इस प्रसंग में याद दिलाना अनुपयुक्त नहीं होगा कि पिछले साल जब प्रधानमंत्री ने अधिकांश गोरक्षकों को ‘समाज विरोधी’ कहा था, तो फौरन बाद आरएसएस प्रमुख भागवत ने खुद कथित गोरक्षकों के इस चरित्रांकन का खंडन किया था और प्रधानमंत्री की बात को दुरुस्त करते हुए कहा था कि उनमें ज्यादातर समाज के लिए उपयोगी काम कर रहे हैं.
साबरमती में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गोभक्तों या गोसेवकों और गोरक्षकों के अंतर को जोर देकर रेखांकित किया. इस रेखांकन में यह अंतर्निहित है कि गोभक्त या गोसेवक के ध्यान के केंद्र में गाय होती है. गोरक्षक के ध्यान के केंद्र में कथित गोघातक होते हैं. गोभक्त जैसा खुद प्रधानमंत्री ने विनोबा भावे के प्रसंग से बताया ‘गाय के लिए मर जा’ की भावना से जीता है, जबकि गोरक्षक वास्तव में ‘गाय के लिए मार आ’ की भावना से जीता है. लेकिन, यह बात मोदी के उस वैचारिक परिवार के बारे में भी तो सच है, जिसका ठीक इसीलए ये कथित गोरक्षक हिस्सा हैं. प्रधानमंत्री का अपना संघ परिवार भी तो खुद को हिंदू सेवक नहीं बल्कि हिंदू-रक्षक ही मानता है. वह भी तो ‘हिंदू के लिए मर जा’ के विपरीत ‘हिदू के नाम पर मार आ’ की भावना से ही जीता है.
प्रधानमंत्री मोदी इस मूल भावना के खिलाफ कैसे खड़े हो सकते हैं. इसीलिए उन्होंने गोसेवा से छलांग लगाकर ‘देश की मौजूदा स्थिति’ की अपनी चिंता को, हिंसा-अहिंसा की अमूर्त चिंता में बदल दिया और आम तौर पर भीड़ की हिंसा पर लाकर बात खत्म कर दी, जहां आकर अस्पताल में मरीज की मृत्यु पर या वाहन दुर्घटना होने पर भड़कने वाली हिंसा और ज़ुनैद की या पहलू खान की या अखलाक की हत्या, एक ही चीज हो गई. यहां से आगे अहिंसा के लिए प्रवचन की ही उम्मीद की जा सकती है न कि सांप्रदायिक घृणा हमलों और हत्याओं पर अंकुश लगाने के लिए बहुआयामी कदमों की. इस मायने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बोलना भी, उनकी चुप्पी से बहुत भिन्न नहीं लगता है.
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