मानसून : कहर बरपातीं नदियां

Last Updated 05 Jul 2017 02:50:46 AM IST

देश में इस बात को ले कर हर्ष है कि इस बार मानसून अच्छा होगा-यहां तक कि सदी के सबसे बेहतरीन मानसूनों में शुमार किए जा सकने वाले मानसून की भविष्यवाणी है, मौसम विभाग की.


मानसून : कहर बरपातीं नदियां

बारिश पानी की बूंदें ही नहीं ले कर आती बल्कि समृद्धि, संपन्नता की दस्तक होती है. लेकिन बरसात औसत से छह फीसदी ज्यादा हो जाए तो हमारी नदियों में इतनी जगह नहीं है कि वे उफान को सहेज पाएं. नतीजतन बाढ़ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं जितने पानी को तरसते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के मंजर. पिछले साल मद्रास की बाढ़ भी एक बानगी है यह जानने की कि शहर के बीच से बहने वाली नदियों को लोगों ने जब उथला बनाया तो उनका पानी घरों में घुस गया था.

सनद रहे कि वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है, और भूमि पर मिट्टी की ऊपरी परत को गहराई तक छेदता है. यह मिट्टी बह कर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं. हाल में दिल्ली में एनजीटी ने मेट्रो कॉरपोरेशन को चताया है कि यमुना किनारे जमा किए गए हजारों ट्रक मलवे को हटवाए. भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है, जो दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है. आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है, और नदियां सूखी रह जाती हैं. नदियों के सामने खड़े इस संकट ने मानवता के लिए चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है.

हमारी नदियों के सामने मूल रूप से तीन तरह के संकट हैं-पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण. मानसून के तीन महीनों में बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधुंध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं. सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूप के साथ भी छेड़छाड़ हुई और  इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है. नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े और बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं.

पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधुंध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थेड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलवा बह कर नदियों में गिर जाता है. परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं. यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इंतजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें. इससे नदियों के पाट संकरे हो रहे हैं, उनके करीब बसावट बढने से प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है. आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूषण से है. कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रासायनिक दवा और खादों का हिस्सा, भूमि कटाव के अलावा अन्य अनेक ऐसे कारक हैं जो नदियों के जल को जहर बना रहे हैं.

आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं. इनमें गुजरात की अमलाखेडी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं. देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं. वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाव, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा हो या बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवर्णेखा, सरयू हो या रामगंगा, गौला हो या सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक हो या गंडक, कमला हो या फिर सोन हो या भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोबेश सभी प्रदूषित हैं.

इस कारण से हर साल 600 करोड़ रुपये के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है. जब नदियों के पारंपरिक मार्ग सिकुड़ रहे हैं, जब उनकी गहराई कम हो रही है, जब उनकी अविरल धारा पर बंधन लगाए जा रहे हैं, तो जाहिर है ऐसे में नदियां एक अच्छे मानसून को वहन कर नहीं पाती हैं, शहरों पर कहर बरपाने के साथ ही उफन कर गांव-बस्ती-खेत में तबाही मचा देती हैं.

पंकज चतुर्वेदी
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment