नजरिया : भंग न हो, भारत-चीन सीमा पर शांति

Last Updated 02 Jul 2017 05:15:45 AM IST

वैसे तो भारत और चीन के बीच रिश्ते कभी सामान्य नहीं रहे. पर ताजा विवाद की पृष्ठभूमि में भारत और चीन नहीं, भारत और अमेरिका के प्रमुखों की मुलाकात है.


भंग न हो, भारत-चीन सीमा पर शांति

हालांकि यह प्रत्यक्षत: प्राचीन सीमा विवाद की आड़ लिए हुए है; लेकिन इसके मूल में भारत की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को अपने पक्ष में साधने की कोशिश और उसमें मिल रही सफलता है. इसलिए कि चीन के साथ सीमा विवाद प्रारम्भ से ही रहा है.

पंडित जवाहरलाल नेहरू और चाऊ इन लाइ ने एक समय मैकमोहन लाइन को सीमा रेखा मान लिया था. लेकिन जल्द ही चीन ने आधिकारिक स्तर पर ये साफ कर दिया कि अंग्रेजों द्वारा तय की गई सीमा रेखा को वे नहीं मानेंगे. कभी भारत ने चीन के नके को देखकर आपत्ति जताई कि उसने नेफा यानी आज का अरु णाचल प्रदेश गलत तरीके से दिखाया है, तो कभी चीन ने सिक्किम और अरु णाचल को भारतीय नक्शे पर दिखाने को लेकर एतराज जताया. एलएसी पर दोनों देशों की सेनाएं कई जगहों पर तो महज 5 मीटर की दूरी पर ही होती हैं.

चीन से तनातनी के अन्य कारणों को देखें तो नेपाल, म्यांमार, भूटान, बांग्लादेख़्, पाकिस्तान, श्रीलंका हर देश के साथ भारत के संबंध को चीन बिगाड़ने और उसे अपने अनुकूल करने की कोशिशों में जुटा रहा है. पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मदद देता रहा है. भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का भी चीन विरोधी रहा है. इसी तरह, उसने भारत को न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में शामिल करने का भी विरोध किया है. जापान के साथ भारत की दोस्ती चीन को नापसंद है. वहीं भारत की ओर से सार्क देशों के लिए छोड़े गए उपग्रह योजना में खुद को शामिल करने की भी इच्छा रख चुका है चीन. यूरोपीय देशों और खाड़ी देशों के साथ भारत के अच्छे संबंध हों या अमेरिका से बढ़ती निकटता-चीन ने भारत के प्रति ईष्र्या का भाव रखा है.

चीन की ओर से भारत पर युद्ध का खतरा लगातार रहा है, फिर भी सीमा पर अगर गोली नहीं चलती है, महज हाथापाई होती है या जबरदस्ती बंकर तोड़ने तक बात सिमट कर रह जाती है तो इसे देखने का नजरिया भी हमें सुधारना होगा. हर बात को पब्लिक डोमेन में ले जाकर संबंध को तनातनी के स्तर पर लाना दोनों में से किसी के हित में नहीं है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1962 के एकतरफा युद्ध में जीत के बावजूद चीन और भारत के बीच सीमा पर कोई बड़ा फर्क नहीं आया. विवादास्पद स्थितियां भी नहीं सुधरीं, लेकिन 55 साल से शांति भी बनी हुई है. तो हमें मानना चाहिए कि चीन कई मायनों में पाकिस्तान से बेहतर साबित हुआ है. ऐसा कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि आसन्न खतरे से मुंह मोड़ा जाए.

यह मानना पड़ेगा कि भारत-चीन सीमा पर हालात गंभीर हो गए हैं. अब सबसे बड़ा खतरा यह है कि अकेले चीन या पाकिस्तान नहीं, दोनों के खिलाफ एक साथ युद्ध की स्थिति होगी. इस स्थिति को टालना ही बुद्धिमानी है. इस सोच के पीछे तीन बड़े तर्क हैं. एक यह कि फिलहाल हम चीन का मुकाबला नहीं कर सकते. दूसरा, जिस रफ्तार से हम विकास की गति हासिल कर रहे हैं, हमें विकास में चीन को पछाड़ना होगा. और, तीसरी सबसे अहम बात यह है कि कूटनीतिक स्तर पर चीन की घेराबंदी करनी होगी. उसे अहसास दिलाना होगा कि भारत अकेला नहीं है. अगर भारत से युद्ध लड़ा गया, तो चीन को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुकसान उठाना होगा. इसके अलावा, भारत परमाणु संपन्न देा है, जो आत्माभिमान के लिए या थोपे गए युद्ध से पीछे भी नहीं हटेगा. इसी लिहाज से चीन के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के प्रवक्ता की ओर से 1962 के युद्ध की याद दिलाए जाने पर रक्षा मंत्री अरु ण जेटली के बयान को भी देखने की जरूरत है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 1962 और 2017 के भारत में बहुत फर्क है.

भारत-चीन विवाद की असली वजह है चुंबी घाटी. भारत, भूटान और तिब्बत को जोड़ने वाला यह इलाका है. यहीं भारत और चीन के बीच 2 अहम दर्रे हैं-नाथू ला दर्रा और जेलप ला दर्रा. यह घाटी संकरी है. यहां सैन्य गतिविधियां मुश्किल हैं. इसे चिकन्स नेक नाम से भी जाना जाता है. चुंबी घाटी के ठीक नीचे पड़ता है सिलीगुड़ी गलियारा जो भारत को उत्तर-पूर्वी राज्यों से जोड़ता है. इसलिए भारत को यहां चीन की ओर से तेजी से किए जा रहे सड़क निर्माण पर गंभीर आपत्ति है. भारत ने यह साफ कर दिया है कि सड़क निर्माण से भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है. वहीं, चीन ने साफ किया है कि किसी भी किस्म की बातचीत तभी हो सकती है, जब तिब्बत से सटी सीमा के पास से भारत अपनी सेना हटाए. इस स्थिति के जिक्र मात्र से सीमा पर तनाव की स्थिति का पता चल जाता है.

तनाव की इस स्थिति के कारण में अगर अमेरिका और भारत की निकटता है तो इस तनाव के निवारण में भी इसी निकटता की भूमिका रहेगी. दक्षिण चीन सागर में अमेरिका-भारत-जापान के साझा अभ्यास का प्रस्ताव है, जो चीन को नामंजूर होगा. वह इसे नहीं होने देने के लिए किसी भी हद तक जाएगा. भारत के लिए भी यह जरूरी नहीं है कि यह साझा अभ्यास हो ही, लेकिन कूटनीतिक तौर पर इसका डर बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है. वन बेल्ट वन रोड से दूर रहकर भारत ने चीन की दादागीरी को नकारा है, लेकिन अमेरिका से दोस्ती बढ़ाकर भारत ने चीन को ललकारा है.

चीन की यात्रा से पहले पीएम मोदी जुलाई के पहले हफ्ते में तीन दिन इ’ाइल में रहने वाले हैं. यहां नया संबंध, नया समीकरण आकार ले रहा है. इस्रइल से संबंध मजबूत कर भारत दरअसल मध्य एशिया में भी शक्ति संतुलन को बनाए रखना चाहता है. अमेरिका-इस्रइल की दोस्ती जगजाहिर है. भारत यह संकेत दे रहा है कि अमेरिका-इस्रइल-भारत-जापान के रूप में एक नया समीकरण उभर रहा है. इसलिए भारत से युद्ध करने का मतलब सिर्फ  भारत से युद्ध नहीं होगा.

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चीन दौरा अभी सितम्बर में होना बाकी है, जब वहां ब्रिक्स सम्मेलन होगा. चुनौती यह है कि इस दौरे से पहले तनाव को किस तरह सुलझा लिया जाए या कम किया जाए. चीन हमारी सीमा का अतिक्रमण न करे और हम भी उनके लिए खतरा न बनें, यह विश्वास ही दोनों देाों को युद्ध से परे रख सकता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका सिर्फ  और सिर्फ  चीन को काबू में करने के लिए ही भारत का साथ चाहता है. अमेरिका कभी भारत के लिए विस्त सहयोगी साबित नहीं हुआ है. फिर भी कूटनीतिक तकाजा है कि हम अमेरिका के साथ चलें. इस क्रम में भारत को रूस के साथ भी नजदीकी संबंध बना कर रखना होगा क्योंकि चीन को नरम रखने में रूस की महत्त्वपूर्ण भूमिका स्वयं सिद्ध रही है.

उपेन्द्र राय
लेखक, ‘तहलका’ के सीईओ एवं एडिटर इन चीफ


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