मीडिया : कहां गए कड़े सवाल पूछने वाले

Last Updated 02 Jul 2017 05:10:12 AM IST

मुझे गाड़ी चलानी नहीं आती जबकि मेरी श्रीमती क्षमा शर्मा को आती है. एक सुबह दस साल पुरानी वेगन आर के दरवाजे को खोलने के लिए जब उन्होंने चाबी लगाई तो उसका ‘की होल’ चाबी के साथ बाहर आ गया. बड़ी मुकिल.


मीडिया : कहां गए कड़े सवाल पूछने वाले

मैकेनिक से कहा तो उसने कहा कि कंपनी में ही ठीक होगा. दस साल पुरानी गाड़ी को लेकर कंपनी जाएं, ताला ठीक कराएं न हो तो नया डलवाएं. दो डलें. हजारों का खर्चा. दस साल पुरानी में दस-बीस हजार क्यों लगाऊं?

मन ठहरा जुगाड़वादी. सोचा यार. प्लास्टिक जोड़ने वाले ‘की फिक्स’ ले आते हैं. शायद यह उसी से चिपक जाए. ऐसे ही एक कि फिक्स के चक्कर में एक हार्डवेयर की दुकान पर पहुंचा. दुकान पर सन्नाटा पसरा था. गल्ले पर एक युवक बैठा था. कुछ अंदर एक कुरसी पर उसका एक नौकर बैठा था.

मैंने तीन सीढ़ी चढ़कर उस युवा से पूछा : क्या आपके पास प्लास्टिक चिपकाने वाली ‘की फिक्स’ टाइप दस रुपये वाली टयूब होगी? दुकानदार: नहीं है. मैंने पूछा :‘एमसील’ होगी? उसने पूछा : कितनी? मैंने कहा: दो दे दीजिए. क़ारपेंटर तो कहता था कि दस रुपये वाली की फिक्स मिलती है. वह बोला : जीएसटी की वजह से सप्लाई बंद है.

कहां दस रुपये की वो ‘की फिक्स’ टाइप ट्यूब और कहां जीएसटी? लेकिन यही जीएसटी की असली आलोचना थी. यह टीवी पर नहीं थी. वहां जीएसटी की आरती ही आरती थी. चैनलों के मिजाज में ऐसा क्या बदलाव हुआ है कि सारे चैनल सरकार की हर रीति-नीति की सिर्फ आरती उतारते हैं जबकि हर रोज दावा करते रहते हैं कि ‘हम कठिन सवाल पूछते हैं’ कहां गए आपके कठिन सवाल भैये?

बहरहाल,मैंने कहा :चिपकाने वाला जो हो सो दे दो. दो एम सील दे दो उसने एक छोटी-सी प्लास्टिक की शीशी निकाली और कहा ये ‘जेम्स बोंड’ है एकदम गारंटी से ‘बोंड’ करता है. मैंने दाम पूछे तो बताया पचास रुपये दे दीजिए!

मैंने पूछा : जीएसटी से आपको क्या नुकसान है? उसने गुस्से से जो बोला, वह इस प्रकार था : क्या आपको पचास की रसीद भी दूं? बताइए इसकी भी रसीद देने को कहता है. टीवी झूठ दिखाता है मंत्री जी को बुलाकर जीएसटी की तारीफ करवाता रहता है जब कि हम छोटे दुकानदार बर्बाद हो रहे हैं. सीजन में बाजार ठंडा है. इस सरकार को कितना टैक्स चाहिए? पेट ही नहीं भरता. ये तो विदेशी कम्पनियों और बड़े बिजनैस के फेवर में है. हमारे जैसे छोटे दुकानदार की अब इसे परवाह नहीं है.

पहली बार उस दुकानदार से जीएसटी का एक ठोस क्रिटिक मिला. लेकिन चैनल देखो तो जीएसटी के ऐसे दुष्प्रभावों का कोई जिक्र तक नहीं नजर आता. हर चैनल पर मंत्री-संत्री बैठे रहते हैं, जो इसे ‘बिग बैंग’ रिफार्म कहते हैं. नया भारत एक राष्ट्र बन रहा है. ‘एक राष्ट्र, एक टैक्स, एक बाजार’ कह कर जै जै बोली जा रही है.

सेंट्रल हाल में रात के बारह बजे जश्न मनाया जा रहा है. देश का हर ‘महा महा’ बुलाया गया है. चैनल जीएसटी पर ताली बजाने वालों को दिखा रहे हैं पीएम को सुधार पुरुष की उपाधि दे रहे हैं.

सेंट्रल हॉल प्रसारित हो रहा है. पीएम हमेशा सटीक उपमाएं देने के लिए जाने जाते हैं. वे जीएसटी के लिए भी देते हैं कि आप आंख के डॉक्टर के पास आंख चेक कराने जाते हैं वो चश्मे चश्मे का नंबर बदल कर नए लेंस डालता है तो दो-चार दिन आपको चश्मे को एडजस्ट करना पड़ता है. बस इतना ही है..

फिर वही नोटबंदी वाला संदेश है कि कुछ दिन की परेशानी है. फिर सब अच्छा. एक टैक्स एक राष्ट्र की नीति सबके हित में हैं. एक मंत्री कहता है कि गरीब को सबसे ज्यादा फायदा है. पश्चिम के जिन विकसित देशों में जीएसटी लागू हैं. उनमें अपने जैसे गरीब नहीं होते. सब मॉल से खरीदते हैं. पचास फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले देश का  गरीब दुकान से सामान लेता है. अब दुकान ही उजड़ जाएगी तो किससे खरीदेगा?

हमारे देखे एक भी एंकर किसी से एक कठिन सवाल नहीं पूछता कि सर जी अपना इंडिया अगर अब तक ‘एक राष्ट्र’ नहीं था तो क्या तबेला था?‘एक राष्ट्र’ कहीं ग्लोबल बाजार के लिए तो नहीं बन रहा? जिस समाज में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले पचास फीसद आबादी हों, वहां एक बाजार कैसे संभव है? कोई नहीं पूछता?
कहां हैं कठिन सवाल पूछने वाले?

सुधीश पचौरी
लेखक


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