मेडिकल कचरा : जहर घोलती लापरवाही
हमारे देश में सस्ती और उन्नत स्वास्थ्य सेवाएं सबको हासिल नहीं हैं और दूसरे, इस क्षेत्र में जारी धांधली और अराजकता को रोकने के लिए किसी सक्षम तंत्र का भी अभाव है.
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पर यदि स्वस्थ इंसान और पर्यावरण भी चिकित्सा तंत्र की किसी लापरवाही का शिकार हो जाएं तो क्या कहा जाएगा. यह किस्सा अस्पतालों, लैब्स, रिसर्च सेंटर, ब्लड बैंक, नर्सिंग होम आदि से निकलने वाले मेडिकल कचरे या हॉस्पिटल वेस्ट का है जिसकी चपेट में आकर लोग बीमार हो रहे हैं. अफसोस कि स्वस्थ जीवन-शैली अपनाने वाले ऐसे लोग अपनी बीमारी का कारण भी नहीं जान पाते हैं.
पिछले दिनों ऐसा एक खुलासा तब हुआ, जब दिल्ली सरकार के पर्यावरण मंत्री इमरान हुसैन ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) के सदस्यों के साथ मेडिकल कचरे का निपटारा करने वाली एक कंपनी के ट्रीटमेंट प्लांट का औचक निरीक्षण किया. सभी यह देखकर हैरान रह गए कि महानगर दिल्ली में मेडिकल कचरे के समुचित निष्पादन का ठेका जिन दो कंपनियों को दिया गया है, उनके ट्रीटमेंट प्लांट में भारी अराजकता विद्यमान है. वहां न तो ऐसे कचरे को जमा करने, न उसके भंडारण और न ही निपटारे संबंधी नियमों का समुचित पालन किया जा रहा है, बल्कि इस ओर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि कहीं यह कचरा स्वस्थ इंसानों को तो अपनी चपेट में नहीं ले रहा.
यह देखते हुए कि दिल्ली जैसे महानगरों में पिछले एक-दो दशक में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ अस्पतालों, टेस्टिंग लैब्स, नर्सिंग होम्स आदि की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है, और उनसे निकलने वाले मेडिकल कचरे की मात्रा भी कई गुना बढ़ गई है. एक अनुमान है कि वर्ष 2010 में अकेले दिल्ली महानगर में ही हर दिन ऐसा 10 टन मेडिकल वेस्ट निकलता था, जिसमें अब अंदाजन दस गुना बढ़ोतरी हो चुकी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और विशेषज्ञों का इस बारे में मत है कि आम तौर पर अस्पतालों आदि से निकलने वाले कचरे में से 85 फीसद अहानिकारक होता है, लेकिन कचरे का समुचित निष्पादन नहीं होने की वजह से सेहत के लिए नुकसानदेह 15 फीसद मेडिकल वेस्ट शेष कचरे को भी घातक सामग्री में तब्दील कर डालता है. जैसे पट्टियों, रूई के बंडलों के बीच अगर मरीज को लगाए गए इंजेक्शन की कोई सिरिंज, उसमें बचे इंजेक्शन और दवा की डोज-रक्त के साथ खुले रूप में शेष कचरे में मिल जाती है, तो वह बाकी कचरे को भी भयानक ढंग से प्रदूषित कर देती है. डब्ल्यूएचओ का इस बारे में आकलन है कि वर्ष 2010 में इंजेक्शनों के इस किस्म के असुरक्षित डिस्पोजल के कारण दुनिया में एचआईवी के करीब 33,800 मामले पैदा हुए थे. यही नहीं, हेपेटाइटिस-बी के 17 लाख मामलों और हेपेटाइटिस-सी के 3 लाख 15 हजार मामलों के लिए हॉस्पिटल वेस्ट को एक अहम कारण माना गया था.
खतरा सिर्फ सिरिंज का नहीं है, बल्कि दवा की बची डोज के साथ कूड़े में फेंक दी गई बोतल के दोबारा इस्तेमाल में ले लिए जाने की दशा में कोई गंभीर मर्ज किसी इंसान को होने की आशंका भी काफी ज्यादा होती है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक मेडिकल कचरे में ऐसी चीजों के बचे रह जाने की एक बड़ी वजह यह है कि एक तो अस्पतालों में ही कचरे के सही ढंग से निष्पादन-प्रबंधन की ओर ध्यान नहीं दिया जाता और फिर ट्रीटमेंट प्लांटों तक उसे ले जाने की पूरी प्रक्रिया को मशीनों के बजाय मानव हाथों के जरिये संपन्न कराई जाती है. इस व्यवस्था में चूक होने की पूरी आशंका रहती है, जो कई अन्य स्वस्थ लोगों के जीवन से खिलवाड़ का सबब बन जाती है. यह लापरवाही सिर्फ इंसानों और जानवरों पर ही भारी नहीं पड़ रही, बल्कि जल-वायु प्रदूषण के रूप में पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचा रही है.
वर्ष 2015 में डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ ने संयुक्त रूप से किए गए एक आकलन में पाया था कि दुनिया के 24 देशों में से 58 फीसद यानी आधे से कुछ ज्यादा देशों में ही हॉस्पिटल वेस्ट के निपटारे के उचित इंतजाम थे, और ये ज्यादातर देश विकसित देशों में शुमार होते हैं. सवाल है कि आखिर, चिकित्सा के दौरान निकलने वाले कचरे का सुरक्षित निपटारा कैसे किया जाए? इस बारे में डब्ल्यूएचओ ने एक अहम दस्तावेज-सेफ मैनेजमेंट ऑफ वेस्ट्स फ्रॉम हेल्थकेयर एक्टीविटीज’ तैयार किया है, जिसमें निगरानी तंत्र बनाने, रीइक्लिंग, हैंडलिंग, भंडारण और ट्रांसपोर्ट आदि के वक्त बरती जाने वाली सावधानियों पर जोर दिया गया है. काश, हमारे देश का चिकित्सा तंत्र इस जरूरत को बेहतर ढंग से समझ पाता.
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