प्रसंग : स्वच्छता रक्षकों का उपद्रव

Last Updated 20 Jun 2017 04:38:05 AM IST

तानाशाही की प्रवृत्ति हरेक अच्छी से अच्छी चीज को, पवित्र से पवित्र उद्देश्य को उल्टा कर देती है.


प्रसंग : स्वच्छता रक्षकों का उपद्रव

राजस्थान में प्रतापगढ़ की भयावह त्रासदी इसी का सबूत है, जहां प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान ने हत्यारा रूप अख्तियार कर लिया. पचास वर्षीय जफर हुसैन की बतर्ज गोरक्षक स्वच्छता रक्षक बने नगर परिषद के  अधिकारियों ने पीट-पीटकर इसलिए हत्या कर दी कि उनकी एफआईआर के अनुसार वह ‘सरकारी अधिकारी के काम में बाधा’ डाल रहा था.

शुक्रवार की सुबह-सवेरे, नगर परिषद के कमिश्नर के नेतृत्व में अधिकारियों की टीम मेहताब शाह कच्ची बस्ती की महिलाओं को खुले में शौच करने से रोकने के मिशन पर थी. कोई चार-पांच रोज से जारी सिलसिले के हिस्से के तौर पर शौच के लिए बैठी महिलाओं को खदेड़ा जा रहा था, उनके पानी के लोटे लुढ़काए जा रहे थे, और उन्हें बाद में शर्मिदा करने के लिए शौच करते हुए उनकी तस्वीरें खींची जा रही थीं. स्वच्छता रक्षक उस रोज मुहिम में हर रोज से भी आगे चले गए. औरतों को पकड़कर खींचना शुरू कर दिया. शोर सुनकर जफर हुसैन, जो एक सामाजिक एवं ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता थे, और इस कच्ची बस्ती के घरों में शौचालय बनवाने समेत न्यूनतम सविधाओं के लिए प्रशासन से लेकर नगर परिषद तक से संघर्ष करते आए थे, वहां पहुंच गए. उन्होंने स्वच्छता रक्षकों की कारगुजारियों पर आपत्ति की. स्वच्छता रक्षकों के जाने के बाद उनके परिजन जब लहूलुहान हुसैन को अस्पताल लेकर पहुंचे तो उन्हें ‘पहुंचने पर मृत’ पाया गया.

कहने की जरूरत नहीं है कि न सिर्फ नगर परिषद के अधिकारी खुद को पूरे मामले में बेकसूर बता रहे हैं, बल्कि वसुंधरा राजे की पुलिस बहत्तर घंटों तक तो यही तय नहीं कर पाई थी कि हुसैन की हत्या वाकई हत्या थी, या अदद मौत. कोई राय बनाने से पहले उसे पोस्टमार्टम की विस्तृत रिपोर्ट का इंतजार था. दोषियों की पहचान, जांच आदि का तो सवाल ही कहां उठता है.

यह मानने के सभी कारण मौजूद हैं कि पीट-पीटकर हत्या किए जाने के गोरक्षकों कांडों की ही तरह इस मामले में पुलिस तथा प्रशासन की सुस्त रफ्तार का सीधा संबंध इससे है कि मारने वाले एक सरकार-अनुमोदित अभियान के कारकून थे, जबकि मरने वाला एक कच्ची बस्ती का बाशिंदा और वह भी ऐसा जो कच्ची बस्ती को इंसानों के रहने लायक बनाने के लिए आवाज उठाता था और जाहिर है कि इसी के हिस्से के तौर पर खुले में शौच की मजबूरी से मुक्ति समेत स्वच्छता को अपने लोगों की जिंदगी की जरूरत का हिस्सा मानता था. विडंबना है कि जो हुसैन कथित रूप से स्वच्छता अभियान के रास्ते में आने के लिए मारा गया, वह करीब सौ घरों की इस कच्ची बस्ती के घरों में शौचालय बनवाने के लिए प्रशासन से लगातार लिखत-पढ़त करता रहा था.

दूसरी ओर, प्रतापगढ़ नगर परिषद का कमिश्नर, जिस पर हुसैन की जान लेने वाली टीम का नेतृत्व करने का आरोप है, इस बस्ती के निवासियों के लिए शौचालय बनवाने के लिए सरकारी फंड के आवंटन के बारे में मीडिया के सवालों के जवाब में, ‘मुझे याद नहीं है’ से ज्यादा कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं था. गरीबों के घरों में शौचालयों के अभाव की सचाई और उसे बदलने के लिए जरूरी उद्यम की ओर से आंख मूंदकर इलाके तथा देश को खुले में शौच से मुक्त कराने के लिए गरीबों पर डंडा चलाओ और स्वच्छता को गरीबी नहीं गरीबों के ही खिलाफ खड़ा कर दो, यही है तानाशाही मिजाज का कारनामा.

वास्तव में इसके पीछे तानाशाही की प्रवृत्ति को तो फिर भी अपेक्षाकृत आसानी से पहचाना जा सकता है कि खुले में शौच से मुक्ति के लक्ष्य को, घरों में शौचालयों की मौजूदगी में किसी गुणात्मक बदलाव के बिना ही जमीनी स्तर पर मूलत: गरीबों के साथ जोर-जबर्दस्ती का अभियान बना दिया गया है.

यह अचरज से कम नहीं है कि एक जनतांत्रिक व्यवस्था में लोगों यह ‘आदत’ छुड़ाने के लिए शौच करते लोगों पर छापे मारने से लेकर तस्वीरें खींचकर उन्हें शर्मिदा करने तक के तरीके बाकायदा  ‘स्वीकार्य’ का दर्जा हासिल कर चुके हैं. जाहिर है कि ये तरीके शासन में शीर्ष स्तर तक स्वीकार्य नहीं होते तो हुसैन को जिंदगी देकर इसका विरोध करने की कीमत न चुकानी पड़ी होती. जाहिर है कि यह सिर्फ जमीनी स्तर पर ऊपर के आदेशों पर अमल करने वालों के तानाशाही मिजाज का ही मामला नहीं है.

यह ऊपर से लेकर नीचे समूची मौजूदा व्यवस्था के ही तानाशाही मिजाज का मामला है, जिसकी पहचान कहीं मुश्किल है. यहां विकास के प्रयत्न के नाम पर स्वच्छता या अशिक्षा मुक्ति या बाल श्रम मुक्ति या आबादी नियंत्रण आदि चमकीले और जाहिर है कि काम्य नारे उछाल दिए जाते हैं, और उनके अमल में आने के लिए जरूरी बदलावों को जमीन पर उतारने के लिए धीरज के साथ काम करने के बजाय विभिन्न रूपों में जोर-जबर्दस्ती तथा दबाव का ही सहारा लिया जाता है.

परिवार नियोजन का बदनाम इमरजेंसी मॉडल इसका अतिवादी उदाहरण था. लेकिन दबे-छुपे रूप में टाग्रेटिंग के नाम पर अब उसकी भी वापसी महज संयोग नहीं है. यह भी संयोग भर नहीं है कि स्वच्छता अभियान में शुरू से ही आम तौर पर भी जैसा जोर नेताओं के झाडू हिलाने के नुमाइशी आयोजनों का रहा है, उसका अंश भर भी शहरों में सफाई व्यवस्थाओं को मजबूत बनाने और उनकी सामथ्र्य बढ़ाने पर नहीं रहा है. इसी के हिस्से के तौर पर अब जितना जोर शहरों, जिलों, इलाकों को खुले में शौच मुक्त घोषित करने पर है, उसका मुश्किल से छोटा हिस्सा ही गरीबों को शौचालय मुहैया कराने के प्रयत्नों पर रहा है.

जाहिर है कि गरीबों के घरों को शौचालय-युक्त बनाए बिना जिलों और पूरे के पूरे इलाकों को खुले में शौच-मुक्त बनाने की मांग कोई पूरी तरह से संवेदनहीन और तानाशाहीपूर्ण शासन ही कर सकता है. प्रतापगढ़ में हुसैन के बलिदान से यह सचाई उभरकर अब सामने आई है, लेकिन वास्तव में कमोबेश देश भर में किसी न किसी पैमाने पर यही हो रहा है. कर्ताधर्ताओं को इतना भी समझाया जा सके कि खुले में शौच से मुक्ति के मामले में घोड़े से आगे गाड़ी लगाने की गलती न करें, तो हुसैन की कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी.

राजेन्द्र शर्मा
लेखक


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