मातृ भाषा दिवस : कैसे मजबूत बने हिन्दी

Last Updated 21 Feb 2017 06:03:54 AM IST

हम इस साल का भाषा दिवस मना रहे हैं, तब तक चार और राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा कम कर उन्हें स्थानीय भाषा में स्थानांतरित करने के लिए रेडियों में कार्यरत भाषा प्रतिनिधियों के घरों के सामने बोरिया-बिस्तर समेटने के लिए ट्रक खड़े हो चुके हैं.


मातृ भाषा दिवस : कैसे मजबूत बने हिन्दी

ये चार भाषाएं हैं-असमिया, उड़िया, तमिल और मलयालम. उन्हें आकाशवाणी के राष्ट्रीय केंद्र से विदा किया जा रहा है.  

आकाशवाणी  में 19 भाषाओं की राष्ट्रीय समाचार बुलेटिन होने की सूचना आकाशवाणी द्वारा 1992 में प्रकाशित एक पुस्तक स्टोरी ऑफ न्यूज सर्विस डिवीजन से मिलती है. भारत के प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सभी भारतीय भाषाओं के लिए आकाशवाणी में समाचार सेवा प्रभाग की स्थापना की थी. आकाशावाणी ही नहीं दूसरी संस्थाओं में भी भारतीय भाषाओं की जगह सुनिश्चित की गई. उनमें संसद भी है. लेकिन यहां भारत और भारतीय भाषाओं के बजाय हिन्दी और हिन्दुस्थान की विचारधारा राष्ट्रीय भाषाओं को स्थानीय बोली की तरफ फेंकने के अभियान में लगातार लगी हुई है और उसमें उसे सफलता मिली है. 1991 के बाद से तो यह सफलता कुछ ज्यादा ही मिली.

आकाशवाणी में राष्ट्रीय भाषाओं को यह बताकर विदाई दी जा रही है कि वे जिस राज्य की भाषा है उन्हें वहां भेजा जा रहा है. क्या गुजराती केवल गुजरात की भाषा है. महाराष्ट्र की नहीं है? देश के दूसरे हिस्से में गुजराती बोलने-सुनने वाले नहीं हैं?  किसी एक भाषा को बरतने वाले लोग देश भर में बिखरे हुए हैं. सौराष्ट्र भाषाभाषी तमिलनाडु में हैं. प. बंगाल में ही बंगाली नहीं रहते. बनारस में भी बंगाली हैं, और दिल्ली में भी. राज्य की प्रशासनिक राजधानी को भाषा की राजधानी में क्यों तब्दील किया जा रहा है? उर्दू को कहां भेजेंगे? संस्कृत के लिए राष्ट्रीय राजधानी में जगह कैसे बनती है? आकाशवाणी से भारतीय भाषाओं की विदाई इस वाहियात तर्क के आधार पर की जा रही है कि  स्थानीय स्तर पर भाषा से जुड़ी प्रतिभाओं को समाचार बुलेटिन से जोड़ा जा सकेगा जबकि 1992 में न्यूज डिवीजन के बारे में आकाशवाणी द्वारा प्रकाशित पुस्तक में ही बताया गया है कि राष्ट्रीय भाषाओं में निकलने वाले केंद्रीय समाचार बुलेटिन कितने हुनरमंद लोगों के हाथों से होकर है. 

प्रतिभाओं की नई परिभाषा यहां गढ़ी जा रही है. राष्ट्रीय से स्थानीय भाषा में तब्दील करने के लिए एक सामाजिक आधार तैयार किया जा रहा है ताकि दिल्ली बनाम स्थानीयता का एक संघर्ष ही खड़ा हो जाए. दावा किया जा रहा है कि इससे बुलेटिन को बेहतर किया जा सकेगा. हकीकतन एक राजनीतिक विचारधारा के तहत भाषाओं के लिए नियुक्तियां बंद कर दी गई. आकाशवाणी में ही नहीं बल्कि संसद में भी यही दिखता है. भाषा के लिए काम करने वालों को दिहाड़ी पर रखा गया. दिहाड़ी पर रखने का अर्थ असुरक्षा बोध के साथ काम कराने और करने का दबाव होता है.

आंकड़ों पर नजर डालें तो आकाशवाणी में तमिल के लिए सात स्थायी पदों पर नियुक्ति का प्रावधान है लेकिन एक पद भी नियुक्ति नहीं की गई. जो असमिया अब गुवाहाटी भेजी जा रही है उसके लिए एक भी स्थायी नियुक्ति के प्रयास नहीं हुए. उसके छह पद खाली पड़े हैं. स्पष्ट है कि भाषाओं का दर्जा राष्ट्रीय भाषा से स्थानीय बोली की तरफ घटाने का फैसला पहले ही लिया जा चुका था, जो धीरे-धीरे लागू होता रहा. 2019 तक शायद यह बेदखली की प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी. इसे पहले भाषाओं के समाचार बुलेटिन के प्रसारण का समय कम कर दिया गया था. दूरदशर्न पर पंजाबी और उर्दू का एक साप्ताहिक कार्यक्रम चुपके से बंद हो गए.

गौरतलब है कि राजधानी स्थित आकाशवाणी केंद्र से भारतीय भाषाओं को विदा कर रही है लेकिन ब्रिटिश संस्था बीबीसी  कई भारतीय भाषाओं में समाचार देने के काम की तैयारी लगभग पूरी कर चुका है. क्या दिल्ली से राष्ट्रीय भाषाओं की बेदखली का रिश्ता बीबीसी के विस्तार से जुड़ा है? दूसरा क्या राष्ट्रीय भाषाओं के विस्थापन का फैसला हिन्दी, हिन्दू, हिन्दूस्थान की विचारधारा को लेकर चलने वाले किसी एजेंसी को खड़ा करने के फैसले से जुड़ा है. इस एजेंसी की स्थापना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की है और वह अभी भारतीय भाषाओं में अपना विस्तार कर रही है.

इस समाचार एजेंसी को आकाशवाणी में हिन्दी की समाचार सेवा को बेहतर करने का काम सौंपा गया था. यह संकेत है कि राष्ट्रीय भाषाओं को दिल्ली से बाहर भेजकर वहां इस एजेंसी की प्रतिभाएं ही भाषाओं के बुलेटिन को बेहतर करने के नाम पर लगाई जा सकती है. भारत में भाषा की राजनीति यहां की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी है. महज भाषा एक माध्यम नहीं है. हिन्दी, हिन्दू और हिन्दूस्ता(था)न की राजनीति का यह मुख्य उद्देश्य है कि भारतीय भाषाओं का दरजा स्थानीय हो तभी हिन्दी को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित किया जा सकता है. गौरतलब है कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की मुहिम में लगे लोग राजस्थानी और भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध कर रहे हैं. उनका मानना है कि ये भाषाएं भी सूची में शामिल हो जाएंगी तो हिन्दी का क्या बचेगा.

राष्ट्र-निर्माण को लेकर दो दृष्टिकोण हैं. एक दृष्टिकोण है कि कश्मीर की कल्पना के साथ भारत की कल्पना साकार होगी या फिर भारत की कल्पना के अनुरूप कश्मीर की कल्पना तैयार करनी होगी. भाषा के साथ भी ऐसी ही बात है. हिन्दी को राष्ट्रीय भाषाओं की जगह लेनी है, या फिर राष्ट्रीय भाषाओं के साथ रिश्तों के आधार पर हिन्दी को खड़ा करना है. हिन्दी की ताकत भाषाएं तभी हो सकती हैं, जब उन्हें राष्ट्रीय का दर्जा होगा. राष्ट्रीय भाषाओं से मुकाबला करके हिन्दी अंग्रेजी के समानांतर लगातार कमजोर हो रही है. अधिकतर सरकारी दफ्तरों में पहले अंग्रेजी में मसविदा तैयार होता है. बाद में उसका हिन्दी अनुवाद होता है. भाषाओं के हितों के मद्देनजर तीन काम तत्काल होने चाहिए. पहला केंद्र में अनुवाद मंत्रालय बने. भाषाओं के लिए संवैधानिक आयोग बने. अनुवादक कार्यकर्ता  तैयार करने चाहिए क्योंकि वही देश की वास्तविक एकता और विविधता को बचा सकते हैं.

अनिल चमड़िया
लेखक


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