बदलते चुनावी दांव-पेच

Last Updated 19 Feb 2017 04:56:10 AM IST

चुनाव किसी भी लोकतंत्र की जान हुआ करता है क्योंकि उसी के सहारे जनता को देश के शासन में भागीदारी का अहसास होता है. यही एक ऐसा मौका होता है, जब जनप्रतिनिधि (या होने का दावा करने वाले!) जनता के पास आते हैं, और उससे अपने लिए वोट और समर्थन मांगते हैं.


गिरिश्वर मिश्र (फाइल फोटो)

यही वह स्वर्णिम क्षण होता है, जब दिखता है कि जनता भी कुछ अहमियत रखती है क्योंकि शेष समय तो नेता और जनता के बीच सिर्फ राजा और प्रजा का ही रिश्ता रहता है. पांच साल जनता अक्सर याचक की मुद्रा में रहती है, और सत्तासीन राजनेता दाता की मुद्रा में. \'जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकार\' का पुराना लोकतांत्रिक आदर्श तो अब दूर की कौड़ी हो गया है.

हां, मजबूरी में ही सही चुनाव के वक्त जनता जनार्दन की पूछ जरूर कुछ बढ़ जाती है. विवश राजनेता को जनता के पास जाना पड़ता है, और उससे बात करनी पड़ती है. तरह-तरह के हथकंडों से जनता की मान-मनौवल करने की भी जरूरत पड़ती है, उसे बहलाना-फुसलाना और रिझाना पड़ता है ताकि उसे अपनी ओर करके ज्यादा से ज्यादा वोट बटोरा जा सके. समर्थन जुटाने के लिए नेता लोग नायाब तरीकेईजाद करते हैं, और उन्हें काम में लाते हैं. करोड़ों रुपये बांटने के लिए तैयार किए जाते हैं, शराब बांटी जाती है पर यह पुराना पड़ रहा है. एक नवाचारी नेता ने क्रिकेट की \'चीयर गर्ल्स\' की तर्ज पर रूसी सुंदरियों के नृत्य आयोजित कर चुनावी सभा में मतदाताओं को लुभाने का नया ही अंदाज दिखाया.

जनतंत्र की व्यवस्था की मजबूरी है कि सत्ता पाने के लिए शासन की बागडोर संभालना तभी संभव हो पाता है, जब कोई राजनैतिक दल बहुमत हासिल करे. विधान सभा और संसद में अंकों का राजगणित कैसे संभाला-सुलझाया जाए; यह उनके सामने एक बड़ी पहेली बन गई है. इसके लिए हर किस्म का दांव-पेच लगाया और खेला जाता है . इस खेल के मोहरे विभिन्न दलों के प्रत्याशी होते हैं, जो चुनाव में प्रत्याशी के रूप में अपने लिए समर्थन जुटाने की हर जुगत करते हैं.

अपने-अपने दल की विशेषताओं, उसमें शामिल होने के लाभों आदि द्वारा आकर्षित करने की उनकी चेष्टाएं कई-कई रूप लेती हैं. इनमें न सिर्फ अपनी विशेष उपलब्धियां ही गिनाई जाती हैं, बल्कि जाति, क्षेत्र, धर्म, भाषा और नातेदारी आदि की साझेदारी के जरिए एकता और अपनत्व का राग भी अलापा जाता है. झूठे वादे किए जाते हैं. बेटी, बहू, भाई और बेटा जैसे पारिवारिक रिश्तों की दुहाई दे कर निकटता गांठते हुए प्रत्याशी द्वारा अपने लिए वोट मांगा जाता है. जनता के लिए पल्रोभनों की झड़ी-सी लगा दी जाती है. क्षेत्र के विकास की कसमें खाई जाती हैं. विरोधी दल से  प्रत्यक्ष और परोक्ष समझौते किए जाते हैं. इस तरह के जोड़-तोड़ की अगली कड़ी में अपने विरोधी पर हर तरह के प्रहार किए जाते हैं. उसका चरित्र-हनन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है. एक दूसरे पर तीखे व्यंग्य बाण चलते हैं, और शिष्टता-शालीनता के तकाजों को छोड़ नीचा दिखाने की भरपूर कोशिश की जाती है.



आज इसका एक विचित्र रूप दिख रहा है, जिसमें अपने विरोधी के ऊपर इस तरह के आरोप और लांछन इस ढंग से लगाए जाते हैं कि झगड़ने के असभ्य तरीके भी इनके आगे ओछे पड़ते से दिखते हैं. यदि एक दल का प्रत्याशी दूसरे दल के प्रत्याशी को चोर कहता है, तो दूसरा पहले वाले को डकैत साबित करता है. यह सिलसिला रु कने का नाम ही नहीं लेता. पार्टी के चुनाव मैनिफेस्टो धरे के धरे रह जाते हैं. राजनीति का निजीकरण चुनाव को नितांत व्यक्तिकेंद्रित बनाता जा रहा है. और चुनाव की सरगर्मी \'तू-तू, मैं-मैं\' में समाती जा रही है. देश, नीति और समाज के सवाल तक पहुंचने का समय ही किसी के पास नहीं बचता. 

यह निश्चय ही गौरव की बात है कि अभी तक भारत में प्राय: निश्चित समय पर आम चुनाव होते रहे हैं, और जनता द्वारा चुनी हुई सरकार शासन में रही है. यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसी अवधि में भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल आदि में प्रजातंत्र को बनाए और बचाए रखना मुश्किल होता जा रहा है. पर लोकतंत्र की सत्ता बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि हममें राजनैतिक समझ और परिपक्वता भी बढ़े. धनबल और बाहुबल के ऊपर लगाम लगे बिना राजनीति के अपराधीकरण से नहीं बचा जा सकता. इसके लिए चुनाव में व्यापक सुधार और जन जागरण जरूरी हो गया है.

गिरिश्वर मिश्र


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