पुरातनी तरकीब सनातनी खतरे

Last Updated 19 Feb 2017 04:37:47 AM IST

अफगानिस्तान लंबे अरसे से क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों की राजनीति का शतरंज बना हुआ है. इसलिए नहीं कि सामरिक दृष्टि से उसकी भू-राजनीतिक स्थिति क्षेत्रीय-वैश्विक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है.


डॉ. दिलीप चौबे (फाइल फोटो)

दक्षिण-मध्य एशिया से लेकर चीन और मध्य-पूर्व तक पहुंचने के लिए अफगानिस्तान हो कर ही जाना पड़ता है; बल्कि इस कारण से अब ज्यादा कि पाकिस्तान और चीन के साथ मिलकर रूस एक तिकड़ी बना रहा है. पहले भारत और फिर अमेरिका इनके निशाने पर हैं. यह एक दशक में नहीं बल्कि दो-चार साल में हुआ है, जब भारतीय हितों के प्रति रूस ने एक होस्टाइल-एप्रोच अपनाया हुआ है. इसने क्षेत्रीय-वैश्विक संतुलन को एक हद तक एक तरफ झुका दिया है. भारत के लिए यह चिंता का सबब है कि उसे कठिन समय में दोस्ती निभाये रूस के नये रुख के साथ मित्रता बनाये रखने का जतन करते कूटनीतिक संगति बिठानी पड़ रही है.

इसलिए रूस में हुए क्षेत्रीय सम्मेलन में भारत को अपने हित को केंद्र में रखते हुए अपने विरुद्ध चली जाने वाली चालों को भी ध्वस्त करना था. उसके लिए यह और भी लाजिम हो गया था, क्योंकि इसके पहले दिसम्बर में हुए सम्मेलन में भारत और अफगानिस्तान को पूछा तक नहीं गया था. दरअसल, रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान और भारत के अफगानिस्तान में अपने सामरिक-आर्थिक हित हैं. इसलिए वे उस पर अपना प्रभाव बनाये रखना चाहते हैं.

रूस को भय है कि इराक और सीरिया के बाद आईएसआईएस अफगानिस्तान में घुसपैठ का मंसूबा मास्को के लिए खतरा है. इसलिए वह अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान को उसके दुश्मन आईएसआईएस से भिड़ाना चाहता है. ऐसा हो इसके लिए अफगानिस्तान सरकार और तालिबान को पहले एक मेज पर लाना है. दरअसल, यह लोहे से लोहे को काटने की पुरातनी तरकीब है, लेकिन इसके तीव्र दुधारी परिणाम उतने ही सनातनी हैं. इनके उदाहरण सार्विक है. सबसे ताजा व सटीक तो अफगानिस्तान और पूरा मध्य-एशिया है, जहां दुश्मन से दुश्मन को मरवाने के नुस्खे ने पलटकर उन्हीं को दबोच लिया. लादेन यही तो था.



दरअसल, रूस की अगुवाई में यह इबारत लिखी जा रही थी, जिसमें अमेरिका और उसके नजदीक जा रहे भारत को क्षेत्रीय परिदृश्य में फालतू खिलाड़ी करार देना था. यह ठीक है कि अफगानिस्तान और तालिबान में समझौता हो और अमन का ठोस रास्ता निकले. इस तरफ कोशिश करने की जरूरत बनी हुई है. लेकिन तालिबान को एक औजार बना कर तात्कालिक हल भले निकल आए, स्थायी समस्या बनी ही रहेगी. फिर जो चीन और पाकिस्तान रूस की पीठ ठोक रहे हैं, वह अपने मानदंडों में दोहरे और घोर स्वार्थी हैं.

चीन आतंक से जूझते हुए भी भारत की सुरक्षा परिषद में अजहर मसूद पर प्रतिबंध नहीं लगने देगा. तो पाकिस्तान को आतंकवाद के सक्रिय समर्थन से गुरेज नहीं है. लेकिन इन दोनों को आतंकवाद को परिभाषित करने और उन पर एक साथ वैश्विक कार्रवाई करने की भारतीय चिंता से सहमति नहीं है. इसलिए भारत का तिकड़ियों की थ्योरी का खुला विरोध अतार्किक नहीं है. उसको चलने दिया जाए तो अफगानिस्तान समरभूमि बना ही रहेगा. 

डॉ. दिलीप चौबे


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