महाराष्ट्र : मुझे और नहीं, तुम्हें ठौर नहीं

Last Updated 09 Feb 2017 05:27:08 AM IST

चुनाव की महिमा अपरंपार है. चुनाव अच्छों अच्छों को जमीन पर ले आते हैं.


महाराष्ट्र : मुझे और नहीं, तुम्हें ठौर नहीं

मुंबई नगर निगम के चुनाव शिवसेना के लिए नाक का सवाल हैं. भले ही आप मराठी माणुस का दिन-रात जाप करें, मगर चुनाव जीतने के लिए सबके वोट चाहिए होते हैं. गुजराती विरोधी शिवसेना को भी मुंबई नगर निगम चुनाव के लिए गुजरातियों के वोट चाहिए. इसलिए गुजराती हार्दिक पटेल के मिलने आने से शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे इतने गगदगद हुए कि उन्होंने घोषणा कर डाली कि गुजरात में चुनाव हुए तो हार्दिक शिवसेना का मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे. यह बात अलग है कि गुजरात में कभी शिवसेना का एक विधायक नहीं रहा और न ही निकट भविष्य में होने के आसार हैं.

हार्दिक के मिलने आने से शिवसेना को गुजराती वोटों में कोई इजाफा नहीं होगा. केवल उद्धव ठाकरे को इस बात का सुख मिल सकता है कि उन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी भाजपा की दुखती रग दबा दी. और इस बहाने फिर अपनी धमकी दोहराई कि शिवसेना महाराष्ट्र सरकार से बाहर निकलने को तैयार है. शिवसेना का मानना है कि उसके समर्थन वापस लेते ही सरकार गिर जाएगी. लेकिन  उसकी धमकियां गीदड़ भभकी ज्यादा होती हैं. वह सरकार छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती. मुंबई मनपा को लेकर भाजपा-शिवसेना गठबंधन में महाभारत शुरू हो गया है. भाजपा के साथ सीटों पर तालमेल न हो पाने पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के ‘तलाक, तलाक, तलाक’ कहने के बाद दोनों पार्टियों का तीन दशक पुराना केसरिया गठबंधन टूट गया. मगर तब से जिस तरह पवार का पावर गेम शुरू हो गया है, उससे  यह सवाल उठने लगा है कि क्या पवार की एनसीपी गठंधन में शिवसेना का स्थान लेगी या कि मध्यावधि चुनाव होंगे.

केसरिया गठबंधन के बारे में दोनों ही पार्टयिों के लोग कहते थे कि यह वैचारिक गठबंधन  है, और जब देश की राजनीति में भाजपा को अछूत माना जाता था, तब 1984 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे और भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने इसको बनाया था. यह गठबंधन इतना कामयाब हुआ कि एक बार तो महाराष्ट्र में दोनों दलों की सरकार भी बनी. केंद्र में राजग-1 सरकार में दोनों दल साथ रहे. अब दोनों को बीच हुआ तलाक भी अजीब है. तलाक हो गया है मगर दोनों सरकार में साथ रहेंगे. शिवसेना ने गठबंधन तोड़ने के बाद भविष्य में भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन न करने की घोषणा की है लेकिन राज्य की स्थिरता के लिए वह केंद्र और राज्य सरकार में बनी रहेगी. इस पर मुंबई के एक अखबार ने टिप्पणी करते हुए लिखा है कि शिवसेना कागजी शेर है, और उसका तलाक भी कागजी है.

मुंबई को लेकर शिवसेना इतनी भावुक है कि वह राजनीति की बदली हुई हकीकत को देखने के तैयार नहीं है. मुंबई महानगर पालिका सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है, जिसका वार्षिक बजट 37 हजार करोड़ रु पये है, जो देश के कुछ छोटे राज्यों के बजट से भी ज्यादा है. शिवसेना का मुंबई से लगाव इसलिए भी है क्योंकि वहीं उसका जन्म हुआ, वहीं उसने मराठी माणुस के नाम पर पहचान बनाई. मुंबई नगर पालिका पर लंबे समय से उसका कब्जा रहा.

इस दौरान भाजपा सहयोगी कलाकार की भूमिका में ही रही. लेकिन 2014 के बाद तस्वीर ही बदल गई. भाजपा केंद्र में सत्ता में आ गई और महाराष्ट्र में पहले महागठबंधन में शिवसेना बड़े भैय्या की भूमिका में थी, वहां भाजपा ने वह जगह ले ली. शिवसेना इस बदली हुई हकीकत को हजम नहीं कर पा रही है. वह चाहती है कि भाजपा मुंबई मनपा पर उसके वर्चस्व को स्वीकार कर ले. मगर भाजपा आधी सीटें चाहती थी. मुंबई महानगर पालिका की 227 सीटों में से भाजपा ने 114 सीटें मांगी थी, जिसे शिवसेना ने अपना अपमान समझा.

वह भाजपा को केवल 60 सीटें देने को तैयार थी, जिसे भाजपा ने मंजूर नहीं किया. वैसे, दोनों का गठबंधन विधान सभा चुनाव में भी टूट चुका था क्योंकि भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. मगर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और शिवसेना भारी फासले के साथ दूसरे नम्बर पर रही. इसके बाद वह सरकार में शामिल हुई मगर उसे शिकायत रही है कि उसे महत्वपूर्ण विभाग नहीं मिले. इस खीझ को निकालने के लिए शिवसेना सरकार में रहते हुए विपक्षी पार्टी की भूमिका निभाती रही.

भाजपा और उसकी राज्य सरकारों के काम पर तीखी टिप्पणियां करना उसका शगल बन गया है. कई बार शिवसेना ने सरकार छोड़ने की धमकी दी. लेकिन वह सरकार में रहने के फायदे भी उठाती रही और विपक्षी पार्टी के तेवर भी दिखाती रही. ऐसा करना उसकी मजबूरी है. भाजपा से अलग पहचान दिखाने के लिए विरोध की मुद्रा अख्तियार करना शिवसेना के लिए जरूरी है. दूसरी तरफ सत्ता में बने रहना भी उसकी मजबूरी है. नहीं तो उसमें फूट तक पड़ सकती है. यही वजह है कि उद्धव ठाकरे ने गठबंधन तोड़ दिया है मगर सरकार न केंद्र में अपने स्थान छोड़े हैं और न ही राज्य में. इसलिए लोगों को लगता है कि यह तलाक अस्थायी है.

शिवसेना अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती थी, इसलिए अपने बूते पर चुनाव लड़ने का फैसला किया. उसे यह गलतफहमी है कि वह अपने बूते मुंबई का चुनाव जीत सकती है. लेकिन जैसे हालात हैं, उनमें वह बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी और उसे भाजपा की जरूरत पड़ेगी ही. तब गठबंधन फिर बन जाएगा जैसा विधान सभा चुनाव के बाद भी हुआ. तभी लोग यह मानते हैं कि महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा एक दूसरे के पूरक हैं. उन पर यह कहावत लागू होती है-तुम्हें और नहीं, मुझे ठौर नहीं.

2014 के विधान सभा चुनाव के बाद से महाराष्ट्र में ‘पति, पत्नी और वो’ का राजनीतिक खेल भी चल रहा है. वो की भूमिका निभा रहे हैं शरद पवार. शिवसेना ने गठबंधन तोड़ने के बावजूद सरकार इसलिए नहीं छोड़ी क्योंकि उसे लगता था कि कहीं सरकार में एनसीपी उसकी जगह न ले ले. गठबंधन में दरार पड़ने के बाद पवार ने गुगली डालते हुए बयान दे डाला कि यदि शिवसेना सरकार से समर्थन वापस ले तो भाजपा उनसे बात करने आए. इससे राज्य में लंबे समय से लग रहीं इन अटकलों को बल मिला है कि यदि शिवसेना राज्य सरकार से समर्थन वापस लेती है, तो पवार की पार्टी समर्थन दे सकती है.

सतीश पेडणेकर
लेखक


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