टिप्पणी : आरक्षण और संघ परिवार
आरएसएस के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान आरक्षण पर पुन: विचार करने संबंधी बयान दिया था.
![]() आरएसएस के सरसंघ चालक मोहन भागवत (file photo) |
अब पांच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले संघ प्रचारक मनमोहन वैद्य ने भागवत के बयान को दोहरा कर एक विवाद खड़ा कर दिया है. उनके इस बयान का पांच राज्यों के चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा, यह कहना मुश्किल है. लेकिन संघ की विचार प्रक्रिया, सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को जानने-बूझने वालों के लिए इन दोनों के बयान संगठन के दूरगामी मार्ग पर रोशनी डालते नजर आते हैं. इनके बयान सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं, क्योंकि संघ परिवार का एकमेव ध्येय हिंदू समाज की एकता है. इसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने कहा था, ‘संघ तो केवल, हिंदुस्तान हिंदुओं का-इस ध्येय वाक्य को सच्चा कर दिखाना चाहता है.’ संघ परिवार इसी सूत्र वाक्य को शिरोधार्य कर आगे बढ़ रहा है.
पिछले लोक सभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक विजय से उत्साहित हिंदू समाज को एकजुट करने की उसकी कोशिशों को पंख लग गए हैं. लेकिन हिंदू समाज की वृहत्तर एकता में आरक्षण नीति सबसे बड़ी बाधा है. संघ की चिंता और संकट का सबसे बड़ा कारण भी यही है. सही मायने में रूढ़ सांस्कृतिकवाद और आधुनिकता के बीच कैसे संतुलन कैसे बिठाया जाए, जाति की समस्या का हल क्या हो, यह सवाल संघ के अधिकारियों और विचारकों को सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है. आरक्षण की नीति जारी रहेगी, स्थायी रहेगी तो भारतीय समाज में जाति व्यवस्था भी जारी रहेगी. फिर संघ परिवार हिंदू समाज की सभी जातियों को अपने में समाहित कैसे कर पाएगा. संघ सामाजिक समरसता की बात करता है, लेकिन इस्लामिक संस्कृति से उसका ऐतिहासिक विरोध रहा है. इसके राजनीतिक संगठन भाजपा को सवर्णवादी माना जाता है, इसलिए उसे दलितों का समर्थन नहीं मिल पाता. अल्पसंख्यकवाद से उसका टकराव है. इसलिए आरक्षण पर पुनर्विचार की बात जब तब संघ के एजेंडे में आती रहती है. सही मायने में आरक्षण की नीति आने वाले दिनों में सबसे बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में उभर कर सामने आने वाली है.
देश के सामाजिक समूहों में तीन तरह के ध्रुवीकरण बने हुए हैं. एक जिनको आरक्षण का लाभ मिल रहा है, दूसरे आरक्षण के विरोधी और तीसरे आरक्षण के आकांक्षी जिनमें जाट, गुर्जर, मराठा आदि जातियां हैं. जो सामाजिक-राजनीतिक रूप से कमजोर नहीं हैं. बावजूद इसके ये जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं. सवाल यह भी है कि जिन जातियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है, वे क्या इस अधिकार को छोड़ देंगी? संघ परिवार के पास इसको हल करने का कोई फॉमरूला नहीं है. लेकिन कुएं के शांत पानी में एक पत्थर फेंक कर हलचल पैदा करने की कोशिश की तरह इस आरएसएस नेता आरक्षण पर पुनर्विचार करने का विचार देते रहते हैं. यह भी बड़ा सवाल है कि भविष्य में आरक्षण बड़ी सामाजिक समस्या बना तो इसके उपाय क्या हो सकते हैं? सबसे पहले तो मलाईदार तबके को उससे बाहर किया जाए और उसकी जगह कमजोर जातियों को मौका दिया जाए और आरक्षण को समयबद्ध किया जाए. इसके लिए सभी राजनीतिक दलों की सहमति जरूरी है.
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