परत-दर-परत : कॉरपोरेट राजनीतिक दलों को चंदा क्यों?

Last Updated 05 Feb 2017 03:07:45 AM IST

देश इस बार के बजट में व्यवस्था की गई है कि राजनीतिक दल दो हजार से ज्यादा की रकम सिर्फ कैशलेस तरीके से ले सकेंगे.


परत-दर-परत : कॉरपोरेट राजनीतिक दलों को चंदा क्यों?

कैशलेस तरीके से यानी बैंक के जरिए. पहले यह सीमा बीस हजार की थी. कोई भी समझ सकता है कि इस राशि परिवर्तन से मूल स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है. बसपा सुप्रीमो से चुनाव आयोग ने पूछा कि आप को करोड़ों रुपयों का चंदा कहां से मिला, तो उन्होंने जवाब दिया, हमारे सदस्य साधारण गरीब लोग हैं, उन्होंने पांच-पांच दस-दस रुपये करके यह चंदा दिया है. जब कोई इतना बड़ा झूठ बोलने को तैयार हो, तो उसके साथ न्याय करने के लिए राजनीतिक चंदे को सत्यापित करने का कोई ठोस उपाय सोचना होगा.

इसका एक उपाय यह हो सकता है कि राजनीतिक दलों के लिए यह बाध्यता पैदा की जाए कि वे हर चंदे की रसीद जारी करें. सरकार बिना रसीद दिए किसी से एक पैसा भी नहीं ले सकती. पैसा लेना और रसीद न देना भ्रष्टाचार के लिए पर्याप्त गुंजाइश पैदा करता है. आजकल प्राय: सभी अच्छी दुकानें रसीद देती हैं. रसीद नहीं लेना चाहते हैं वे जो की गई खरीद पर विक्रय कर चुकाना नहीं चाहते. कई बार दुकानदार अपनी ओर से भी इसे प्रोत्साहित करते हैं. इस तरह खरीदे-बेचे जाने वाले सामान की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए. टैक्स चोरी  से ही काला धन पैदा होता है. राजनीतिक दल ही सरकार बनाते हैं. कहा जा सकता है कि वही सरकार हैं. उनके वित्तीय आचरण में वैसी ही शुद्धता होनी चाहिए जैसी कि सरकार में होती है.

दरअसल, बड़े से बड़े और छोटे से छोटे चंदे के लिए रसीद देने की अनिवार्यता पैदा किए बगैर राजनीतिक दलों की वित्तीय शुद्धि हासिल नहीं की जा सकती. इसका फायदा यह होगा कि प्रत्येक दल अपनी सभी प्राप्तियों का हिसाब रखने को बाध्य होगा. इसी आधार पर उसके खातों का सच्चा ऑडिट किया जा सकता है. फिलहाल, सभी राजनीतिक दलों के लिए अपने खातों का ऑडिट करवाना अनिवार्य है. यह ऑडिट रिपोर्ट चुनाव आयोग को भेजी जाती है. लेकिन कोई भी दल चूंकि अपनी प्रत्येक प्राप्ति का रिकॉर्ड नहीं रखता, इसलिए चुनाव आयोग को, और उसकी मार्फत, जनसाधारण को पता नहीं चल पाता कि उसे कहां से कितना चंदा प्राप्त हुआ है. स्पष्ट रूप से यह धोखाधड़ी है.

इस खेल को शायद कभी भी पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता, क्योंकि जैसा कि कहा गया है, पॉवर अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करती है, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली को इसीलिए बेहतर माना जाता है कि इसमें किसी भी बुराई को न्यूनतम करने की संभावना मौजूद होती है. पश्चिमी देशों में और खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका में कॉरपोरेट द्वारा भारी मात्रा में राजनीतिक चंदा देने की परंपरा है. वहां के चुनाव में खर्च भी बहुत होता है. चुनाव के समय प्रत्येक दल के नेता चंदा और दान पाने का कार्यक्रम बनाते हैं, और इसके लिए टूर करते हैं. पश्चिमी देशों के नागरिक इस अनैतिक व्यवस्था को कैसे सहन करते हैं, यह वे ही जानें. इस प्रणाली से राजनीतिक दल पूंजीवाद के एजेंट बन जाते हैं. वे ऐसी नीतियां नहीं अपना सकते और सरकार में आने के बाद ऐसे निर्णय नहीं कर सकते जो पूंजीवाद को स्वीकार्य न हों.

पश्चिम जो करता है, उससे हम सीख जरूर सकते हैं, पर उसका अनुकरण नहीं कर सकते. सीखने की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कॉरपोरेट से राजनीति को प्रभावित करने की शक्ति छीन ली जानी चाहिए. वैसे तो, लोकतंत्र में प्रत्येक इकाई को यह अधिकार है, जो उसका हक भी है, कि वह राजनीति को प्रभावित कर सके. लोकतंत्र इसी को कहते हैं. किंतु यह प्रभावित करना बुद्धि, तर्क और लोकतांत्रिक हस्तक्षेप से ही होना चाहिए, पैसे के बल पर नहीं. पैसे से प्रभावित करना एक तरह की रित है. रितखोर राजनीति रितखोर सरकार ही चला सकती है. कॉरपोरेट का काम वर्तमान कानूनों की सीमा में अधिक से अधिक पैसा कमाना है. इसीलिए उनका गठन भी किया जाता है. कॉरपोरेट के नियम-कानून में यह कहीं लिखा नहीं होता कि वह पैसा खर्च करके राजनीति को प्रभावित करेगा. यह उसका काम नहीं है, और न ही उसे इसका हक है.

तो फिर यह काम किसका है? यह काम नागरिकों का है, राजनीतिक दल और सरकारें जिसका प्रतिनिधित्व करती हैं, यह हक उनका है. कोई नागरिक चाहे तो अपना सारा धन किसी राजनीतिक दल को दान में दे सकता है. कोई सेठ या उद्योगपति भी ऐसा कर सकता है, पर यह उसका अपना पैसा होना चाहिए, उसकी कंपनी का नहीं. यहां ध्यान दिलाने की जरूरत है कि कंपनी कानून की दृष्टि में कोई कंपनी और उसके मालिकान/निदेशक/अन्य अधिकारियों की जुदा यानी पृथक पहचान होती है. कंपनी अपना कमाया हुआ लाभ शेयरहोल्डरों में वितरित कर देती है. कंपनी के डायरेक्टरों और अन्य उच्च अधिकारियों को उनका लाभांश मिलता है, और वेतन भी. इस आय से वे चाहे जिस राजनीतिक दल का वित्त पोषण करें. पर कंपनी इस अर्थ में व्यक्ति नहीं है कि उसकी कोई राजनीति हो. इस तरह के कड़े कदम उठाने से ही राजनीतिक दलों को प्रेरित किया जा सकता है कि वे अपने सदस्यता आधार को विस्तृत और व्यापक करें तथा अपनी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति अपने सदस्यों से ही प्राप्त करें. इसी से सच्चा लोकतंत्र बन सकता है.

राजकिशोर
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment