चुनाव : यूपी का नया नेता कौन!
यह उत्तर प्रदेश की महिमा ही कहिए कि चुनाव आयोग के विधान सभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा करते ही मानो फिजां बदल गई.
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सुर्खियां नोटबंदी और समाजवादी पार्टी में उत्तराधिकार की लड़ाई से खिसक कर इस पर जा टिकीं कि चुनाव में किसका दम दिखेगा और किसका प्रदर्शन किस पर भारी पड़ेगा? तभी तो दनादन टीवी चैनलों के जनमत सव्रेक्षण भी आने लगे. सपा के पारिवारिक कलह में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अब पार्टी के संस्थापक अपने पिता मुलायम सिंह यादव को विस्थापित करके नए ‘नेताजी’ बनकर उभरे हैं. लेकिन देश में सियासी रूप से सबसे अहम प्रदेश के ‘नेताजी’ कहलाने के लिए उन्हें बसपा और भाजपा से टकराना पड़ेगा. अपनी योजनाओं के मुताबिक कांग्रेस और रालोद से गठजोड़ करके अखिलेश मजबूत चुनौती देने की स्थिति में हो सकते हैं.
दरअसल, अपने कार्यकाल के पहले दो साल तक परिवार और पार्टी के बड़ों के पिछलग्गू बने रहे अखिलेश को मई, 2014 के लोक सभा चुनाव में मिली बड़ी हार ने काफी हद तक बदल दिया. उन्होंने हार के लिए जिम्मेदार वजहों को पहचानने की प्रक्रिया शुरू कर दी. एक तरफ विकास योजनाओं की झड़ी लगाई और जबरदस्त प्रचार तंत्र के बल पर खुद के लिए विकास पुरुष की छवि गढ़ी तो दूसरी तरफ चाचा शिवपाल यादव और ‘बाहरी’ अमर सिंह को पार्टी की सारी बुराइयों का प्रतीक बनने दिया. इन्हीं योजनाओं के अनुसार वे अक्टूबर में टकराए और दिसम्बर के आखिर में तो मानो विजय पताका फहराने ही उतरे. सितम्बर में ही उन्होंने हार्वर्ड विविद्यालय के राजनीतिक विशेषज्ञ स्टीव जार्डन को 2017 के चुनाव प्रचार के रणनीतिकार के रूप में तैनात किया था.
सितम्बर में ही अखिलेश ने अपने 10 विस्त युवा लड़के-लड़कियों का दल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का अध्ययन करने भेजा. इस दल में सपा से जुड़े मैनेजमेंट एक्सपर्ट, बैंकर, सुप्रीम कोर्ट के वकील थे. ये अब सोशल मीडिया कैंपेन, विज्ञापन कैंपेन और टेलीफोन संदेशों को संभालने का काम करेंगे. इन तैयारियों के बल पर उन्होंने अपने को ‘शिवपाल और अमर सिंह’ मार्का आपराधिक और सत्ता की दलाली जैसे दागों से अलग किया. विकास लाने को प्रतिबद्ध नेता की छवि बनाई. पिछले महीने उन्होंने दर्जन भर से ज्यादा परियोजनाओं का अनावरण किया. पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनकी सरकार 354 किमी. लंबे समाजवादी पूर्वाचल एक्सप्रेस-वे का विकास कर रही है. वह यह भी तय कर रहे हैं कि जाति की गणित को सही से हल कर लें. उनकी कैबिनेट ने 22 दिसम्बर को एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके मुताबिक 17 पिछड़ी उपजातियों को अनुसूचित जातियों में बदलने पर विचार किया जाएगा. आबादी में करीब 14 फीसद हिस्सा रखने वाली इन उपजातियों के सहारे कुछ चुनिंदा सीटों पर चुनावी खेल पलट सकता है. 2014 के संसदीय चुनाव में गैर-यादव ओबीसी बीजेपी की झोली में चले गए थे. पार्टी पर पकड़ मजबूत करने के बाद अखिलेश ने अग्रणी कुर्मी नेता नरेश उत्तम को राज्य में पार्टी का अध्यक्ष बना दिया. वह मुलायम के करीबी माने जाते हैं.
हर दिन प्रदेश का सियासी मोर्चा उलझता जा रहा है. नोटबंदी के असर से उत्तेजना-उत्साह और बेचैनी, दोनों ही एक साथ पैदा हो रही हैं. काले धन वालों के खिलाफ मुहिम को शुरू में जन समर्थन भी मिलता दिख रहा था, लेकिन हालात सामान्य करने में सरकारी अक्षमता से तकलीफें जब बढ़ने लगीं तो इसके खिलाफ गुस्सा भी बढ़ने लगा. उत्तर प्रदेश की कुल 403 विधान सभा सीटों में शहरी और अर्ध शहरी सीटें 150 से भी कम हैं. फिर, शहरी लोगों का रुझान भी बड़े पैमाने पर ग्रामीण समीकरणों से ही तय होता है. इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परेशानी बढ़ने पर जो वर्गभेद अभी नोटबंदी के मामले में अमीर-गरीब के बीच दिख रहा है, वह जाति और समुदाय के पुराने खांचों की ओर बढ़ सकता है. यही भाजपा के नेताओं की पेशानी पर बल डाल रहा है.
दरअसल, गरीबों खासकर गैर-यादव पिछड़ी जातियों और दलितों को लुभाने की भाजपा और मोदी की कोशिशों की वजहें भी वाजिब हैं. लोक सभा चुनाव में इन्हीं के वोटों ने मोदी लहर को सूनामी जैसा बना दिया था. सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार पिछड़ी जातियों में 27 फीसद यादवों, 53 फीसद कुर्मी-कोयरी और 60 फीसद अन्य जातियों ने कमल पर मुहर लगाई थी. दलितों में 18 फीसद जाटवों और 45 फीसद अन्य दलित जातियों के वोट भाजपा को मिले थे. मगर 2014 के बाद से गंगा में काफी पानी बह चुका है. दलितों के भाजपा से खफा होने की वजहें कई हैं. बहुजन समाज पार्टी के पाले से पिछड़ी जातियों और दलित नेताओं को तोड़ने के बावजूद भाजपा की पतंग कोई बहुत ऊपर जाती नहीं दिखी है. सो, नोटबंदी से भाजपा को आखिरी उम्मीद है. नोटबंदी का चाहे जो असर हो मगर संभावित दलित-मुस्लिम गठजोड़ की वजह से मायावती समाजवादी पार्टी की मजबूत दावेदार हैं. उत्तर प्रदेश में करीब 22 प्रतिशत दलित और करीब 19 फीसद मुसलमानों का समीकरण अगर तैयार होता है तो यह अजेय कहा जा सकता है. लेकिन शर्त है कि ये वोट बिना बंटे एकमुत पड़ें.
यह तभी संभव है जब मुसलमान कुछ और जातियों के वोट बसपा की ओर जाते देखें. मायावती ने इसके लिए 97 मुसलमानों को टिकट ही नहीं दिया, भाजपा का हर मोच्रे पर खुलकर विरोध कर रही हैं. अपने पुराने नारे सर्वजन हिताय के जरिए ब्राrाणों को भी लुभाने की कोशिश कर रही हैं. मुसलमानों के बाद उन्होंने सबसे अधिक 113 टिकट अगड़ों को दिया. इनमें 66 ब्राrाण उम्मीदवार हैं. ब्राrाण और मुसलमानों के वोट को ध्यान में रख कर ही मायावती शुरू में कांग्रेस से भी तालमेल की कुछ बातचीत चला रही थीं पर सीटों की संख्या पर मामला बन नहीं पाया. इसलिए उत्तर प्रदेश का मैदान अभी खुला हुआ है. सबके दांव ऊंचे हैं. इसलिए कोई भी कोर कसर छोड़ने की हालत में नहीं है. सबसे बड़ी चुनौती अखिलेश की ही है. देखना दिलचस्प होगा कि क्या वे वाकई उत्तर प्रदेश के नए ‘नेताजी’ बन पाते हैं या नहीं.
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