चिंतन : राजनैतिक संस्कृति बदलने की संभावना
भारत उत्सव प्रिय है. उत्सव ‘उत्स’ से बना शब्द है. उत्स का अर्थ है-हमारा मूल. हमारे अन्तस् का मौलिक केंद्र आनंदमय है.
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उत्सव आनंद का अतिरेक है. उत्सव सामूहिक रस आनंद का विस्तार है. भीतर उफनाता आनंद बाहर छलकता है, सराबोर करता है. हमको आनंदित-आच्छादित करता है तो उत्सव. चुनाव भी उत्सव हैं. जनतंत्र का सबसे बड़ा पर्व. राजनैतिक दलों व चुनाव लड़ने वाले लोगों के लिए बेशक यह तनाव व द्वंद्व जैसी चुनौती होता है, लेकिन आमजनों के लिए उत्सव. भारत के सबसे बड़े राज्य उप्र सहित पांच राज्यों के चुनाव की घोषणा हो चुकी है. आदर्श आचार संहिता भी लागू हो चुकी है. उत्सव का आनंद मर्यादा और आचार पालन में ही सबको मिलता है. चुनाव के उत्सव में मर्यादा पालन से उत्सवी आनंद की गुणवत्ता बढ़ती है. चुनाव में वाणी और भाषा का अनुशासन प्राय: टूटता रहा है. उम्मीद है कि इस दफा ऐसा नहीं होगा.
स्वतंत्रता सबको प्यारी है. बंधन मुक्त रहना सबकी इच्छा है. राज और समाज अपने सदस्यों पर तमाम मर्यादाएं लगाते हैं. मनुष्य मूल स्वभाव में स्वतंत्रता प्रिय होते हैं. मानव इतिहास में एक समय राजव्यवस्था नहीं थी. तब न राजा था. न दंड व्यवस्था. मनुष्य अपने आप नियम पालन करते थे. उत्तर वैदिक काल के इतिहास में राज व्यवस्था के विकास का वर्णन है. यूरोपीय विचारकों में हाब्स ने भी राज व्यवस्था के विकास पर गंभीर चिंतन किया है. हाब्स के ग्रंथ ‘लेवियाथन’ के अनुसार व्यवस्था के अभाव में शांतिपूर्ण जीवन असंभव हो गया. शतपथ ब्राह्मण प्राचीन भारतीय इतिहास का ग्रंथ है. इसके अनुसार अराजकता पीड़ित लोगों ने मनु से राजकाज सम्हालने की प्रार्थना की. मनु नहीं माने तो सबने आासन दिया कि वे राजा का आदेश मानेंगे और राजकाज के लिए अपने उत्पादन का एक भाग भी देंगे. इस तरह राज व्यवस्था का विकास हुआ.
वैदिक इतिहास में राजा के निर्वाचन के समय उत्सव के उल्लेख हैं. सभा और समिति जैसी जनतंत्री संस्थाओं की मूल भूमि भारत है. भारत स्वभाव से ही जनतंत्री है. भारतीय संविधान निर्माताओं ने संसदीय जनतंत्र अपनाया. सबको मताधिकार मिले. मताधिकार राजनैतिक न्याय की प्रतिभूति है. चुनाव परिणाम प्राय: दो मधुर फल देते हैं. पहला कि हम अपने लिए एक निकटवर्ती सजग व जानकार जनप्रतिनिधि चुनते हैं और दूसरा कि हम एक सरकार भी चुनते हैं. भारतीय मीडिया ने पीछे लंबे समय से लगातार जागरण किया है. सो, मतदाता का विवेक लगातार परिपुष्ट हुआ है. मतदाता प्रसन्न हैं. वे चुनाव को लेकर अधीर थे. बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने आमजनों को बहुत रुलाया. सो, सरकार बदलने की बेताबी थी. विकल्पहीनता के बादल छट गए हैं. तो भी उमस गहरी है.
युवा मतदाताओं की फौज मैदान में है. अब मतदाता ही सम्राट हैं. आज वे अपना शासक चुनने के विवेक से बाखूबी लैस हैं. ‘भारत सवरेपरिता’ का वातावरण है. चुनाव ही गैरजिम्मेदार दल और नेता की पिटाई का उत्सव होते हैं. कुछ स्वाभाविक ही भयग्रस्त हैं और आमजन मस्त बिंदास. 2017 के चुनाव अभूतपूर्व अवसर हैं. अनुभव गहरा गए हैं. इसलिए राज्य की राजनैतिक संस्कृति बदलने की संभावनाएं हैं. जन आकांक्षा है कि सब कुछ ऐसा ही हो. स्थायित्व, जवाबदेही और राष्ट्र सवरेपरिता के सद्गुणों के साथ.
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