परत-दर-परत : मुलायम सिंह से गलती कहां हुई

Last Updated 08 Jan 2017 04:26:12 AM IST

राजनीति में पिता होना बहुत कठिन है. राम उनके उत्तराधिकारी बनें, इस कशमकश ने दशरथ की जान ले ली.


परत-दर-परत : मुलायम सिंह से गलती कहां हुई

अपनी सत्ता कायम करने के लिए औरंगजेब को अपने पिता को कैद रखना पड़ा. वह राजतंत्र का जमाना था. पिता पुत्र का और पुत्र पिता का गला काट सकता था. अब हम लोकतंत्र में रहते हैं. लेकिन मानव स्वभाव कहां बदलता है! इसीलिए मुलायम सिंह ने अपने बड़े बेटे अखिलेश सिंह को मुख्यमंत्री बनाया था. कहना न होगा कि भारतीय राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है. यहां की राजनीति में परिवारवाद एक स्थायी तत्व बन चुका है. इस अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति की स्थापना भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की थी. उन्होंने अपनी बेटी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया था. लेकिन अगर वे ऐसा न करते, तब भी हालत आज ऐसी ही होती. परिवारवाद राजनीतिक पतन का चिह्न है, और इस बीच राजनीतिक पतन ने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं.

इसलिए सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण कठिन हो गया है. पिता की सत्ता पुत्र या पुत्री को मिलनी ही है. फिर मुलायम सिंह से गलती कहां हुई? उन्होंने आखिर वही किया था, जो दूसरों ने किया था, या करते हैं. क्या अखिलेश लायक बाप के नालायक बेटे हैं? क्या सत्ता के नशे में उन्होंने अपने पिता की टोपी उछाल दी? क्या वे अपने आप को पिता से ज्यादा बुद्धिमान समझने लगे हैं? तथाकथित सलाहकारों को दोष देना बेकार है. पिता-पुत्र के बीच इतनी आपसी समझदारी तो होती है कि वे दुष्ट और अमंगलकारी तत्वों के बहकावे में न आ जाएं. आखिर, सत्ता तो पिता की ही कमाई हुई है, जिसका सुख अखिलेश भोग रहे हैं. मुलायम सिंह भी इतने नादान नहीं हैं कि पुत्र को अपदस्थ कर खुद मुख्यमंत्री बनने की सोचें या किसी और को मुख्यमंत्री बना दें.

मेरे खयाल से, पेच बहुत गहरा नहीं है. बेशक, सत्ता का मामला केंद्र में है, क्योंकि कोई भी विवाद कर्त्तव्य को ले कर नहीं, अधिकार को ले कर ही होता है. मुलायम सिंह से गलती यह हुई कि वे अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने के बाद पार्टी की सत्ता अपने पास रखना चाहते थे. बेटा मुख्यमंत्री हो गया, पर बाप समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहना चाहता था, और इस नाते राज्य की राजनीति में भी हस्तक्षेप करने का अपना अधिकार सुरक्षित रखना चाहता था. यानी पार्टी पिता की और मुख्यमंत्रित्व पुत्र का. लेकिन यह तभी तक चल सकता था, जब तक दोनों के बीच टकराव की नौबत नहीं आ जाती. इसके लिए विधान सभा चुनाव से बेहतर मौका और क्या हो सकता था? सभी विधायक शुरू में मुलायम सिंह के प्रति ही वफादार थे, पर सत्ता का एक नया केंद्र स्थापित हो जाने के बाद वफादारियां विभाजित होने लगीं. इसलिए किसे टिकट दिया जाए और किसे नहीं, इस पर पिता-पुत्र के बीच सहमति कैसे हो सकती थी? पिता को पार्टी पर कब्जा बनाए रखना था, पुत्र को अपनी सरकार बचाने की चिंता थी. यहीं मुलायम सिंह गच्चा खा गए.

समकालीन भारतीय राजनीति का एक अटल नियम हो चुका है कि सत्ता जिसकी, पार्टी उसी की. सरकार पार्टी के अधीन नहीं होती, पार्टी सरकार के अधीन होती है. इसलिए जिस क्षण मुलायम सिंह ने अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया, उन्हें उत्तर प्रदेश पार्टी के मामलों से अपने को अलग कर लेना चाहिए था और अपने को राष्ट्रीय राजनीति की ओर मोड़ लेना चाहिए था, जहां भयावह शून्य बेटे को मुख्यमंत्री बनाना था, बना दिया, अब वह जाने और उसका काम जाने. कोई संकट आया, तो जरूर उसकी मदद करूंगा, पर खुद उसके लिए संकट नहीं बनूंगा. इस तरह, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अगर अपने को राष्ट्रीय मामलों तक सीमित कर लेते, तो दोनों के बीच विवाद की नौबत न आती. पिता-पुत्र दोनों सुखी रहते और उनके बीच सौहार्द की कमी न होती. सत्ता बुरी चीज है.

वह अपने प्रतिद्वंद्वी को सहन नहीं कर सकती. चूंकि पिता राज्य के मामलों में भी रु चि लेते रहे और समय-समय पर हस्तक्षेप भी करते रहे, इसलिए पुत्र को अपनी अलग राह बनानी पड़ी. उनके पास दो ही विकल्प थे : एक अच्छा पुत्र होना और एक कामयाब राजनेता बनना. इसमें से अगर उन्होंने दूसरा रास्ता चुना, तो उसके लिए उन्हें दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? मुलायम सिंह के सामने फारूक अब्दुल्ला का उदाहरण था. फारूक ने जब अपने बेटे उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनने दिया, उसके बाद उन्होंने कश्मीर की ओर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मुलायम सिंह ने अपने बेटे को राजपाट सौंपा, पर आधा. वे राजनीति से रिटायर होने की हिम्मत नहीं कर सके. इसीलिए उन्हें दुख के ये दिन देखने पड़े.

राजनीतिक विश्लेषकों में एक खयाल यह चल रहा है कि यह सब नाटकबाजी है, इसका एकमात्र लक्ष्य अखिलेश सिंह को पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करना था, ताकि पार्टी में उनके लिए कोई कांटा न रह जाए. पिता-पित्र जब चाहेंगे, समझौता कर लेंगे. मुझे इस थियरी में विश्वास नहीं है. मैं मानता हूं कि युद्ध वास्तविक है, और इसमें किसी एक का घातक रूप से घायल होना निश्चित है. अभी तक तो मुलायम की ही एक के बाद दूसरे मोर्चे पर हार होती रही है. अखिलेश ग्रुप ने उन्हें समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया है. चुनाव आयोग पार्टी का चुनाव चिह्न उसे ही देगा, जिसका विधान सभा में बहुमत होगा. क्या इस उम्र में मुलायम सिंह यादव के पास इतनी ऊर्जा बची है कि वे एक नई पार्टी खड़ी कर सकें?

राजकिशोर
लेखक


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