प्रसंगवश : भटकते भाषण का संकट
प्रधानमंत्री के भाषण की भाषा का संसदीय-शास्त्रीय अध्ययन भी किया जाना चाहिए. उनके भाषणों में रूपक हिन्दुत्ववादी होते हैं.
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मसलन वे अंग्रेजी नये वर्ष की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन में कहते हैं- दीपावाली के तुरंत बाद हमारा देश ऐतिहासिक शुद्धि यज्ञ का गवाह बना है. सवा सौ करोड़ देशवासियों के संकल्पशक्ति से चला ये शुद्धि यज्ञ आने वाले अनेक वर्षो तक देश की दिशा निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाएगा.
उनके शब्दों का चयन समाज के वर्चस्ववादी जाति के बीच से आता है. वे कहते हैं कि सवा सौ करोड़ देशवासियों ने अपने पुरु षार्थ से उज्जवल भविष्य की आधारशिला रखी है. वे अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि और संसदीय राजनीति की जरूरतों के बीच तालमेल बैठाने का पीड़ादायी यत्न भी करते दिखाई देते हैं. मसलन वे अपनी इस तरह की भाषा के बीच इंटरनेट के जरिये पैसों के लेन-देन को सुविधाजनक बनाने का दावा एक नया एप लाकर करते हैं और उसका नामकरण ‘भीम’ करते हैं. अंग्रेजी में ‘भीम’ शब्द भारत इंटरफेसफॉर मनी का संक्षिप्तिकरण है. तो उससे दूसरी ध्वनि ये पैदा होती है कि ये दलितों के बीच लोकप्रिय नेता डा. भीमराव अम्बेडकर के नाम से इसका नामकरण किया गया है.
उनके भाषण को लेकर मोटा सार ये निकलता है कि वे नीतियों के सफल होने और नहीं होने की परवाह करने से ध्यान बांटते हैं. वे उसका एक सामाजिक आधार तैयार करने पर जोर देते हैं. मसलन ‘भीम’ का नाम लेकर वे अपनी नोटवापसी की नीति का एक सामाजिक आधार तैयार करते दिखाई देते हैं. प्रधानमंत्री के भाषण के संबंध में एक और बात के बाद उस संबोधन में नोटवापसी की फैसले से संबंधित तथ्यों और अन्य पहलुओं के विश्लेषण की कोशिश की गई है.
आखिरी बात है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की खासियत ये है कि वे किसी भी सार्वजनिक समय और अवसर को अपने लिए अवसर में तब्दील कर लेना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि हर ऐसे स्थान और अवसर पर होने वाली सामान्य चर्चाएं और भाईचारे की बातों की जगह उनके फैसलों पर चर्चा ले ले. मसलन 31 दिसम्बर का चुनाव नोट वापसी की मियाद के समाप्ति तक उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर राष्ट्र के नाम संबोधन करने के लिए किया, लेकिन पीआईबी ने उनके संबोधन को नव वर्ष की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित संदेश के रूप में प्रचारित किया. नये वर्ष की पूर्व संध्या पर लोग एक दूसरे से जीवन की कई अन्य गतिविधियों और संबंधों का संवाद करते हैं.
उन्होंने डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने के लिए एक लॉटरी की योजना शुरू की और उसे शुरू करने के लिए 25 दिसम्बर का दिन चुना जिसे पीढ़ियां बड़ा दिन के रूप में मनाती रही हैं और उस लॉटरी के समापन के लिए डा अम्बेडकर के जन्म दिन का चुनाव किया गया. हमें विचार तो ये करना है कि नोटवापसी विशुद्ध एक आर्थिक नीति से जुड़ा फैसला है और उसे लेकर सरकार को किस रूप में सफलता या विफलता मिल रही है, इसका आकलन करना है और नीतिगत फैसलों का आकलन तथ्यों के आधार पर होना चाहिए. उसकी सफलता विफलता में सांस्कृतिक गतिविधियों, परंपरागत संबंधों, धार्मिंक उत्सवों और अन्य सामाजिक-राजनीतिक भावनाओं के आदान-प्रदान के अवसरों का घालमेल नहीं होना चाहिए.
उपरोक्त बातों को सुनकर उसे भ्रम हो सकता है कि क्या वे नव वर्ष की पूर्व संध्या पर वित्त मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री का बजट भाषण सुन रहे हैं. ये संकट के गहराने के संकेत हैं. इस बात के भी संकेत हैं कि प्रधानमंत्री ने नोट वापसी का जो ताबड़तोड़ फैसला लिया उससे कामयाबी का अनुमान गलत साबित हो रहा है. अगर कामयाबी है तो उसे साबित की जाती है. लेकिन कामयाबी के तथ्यों के बजाय उसे योजनाओं की घोषणाओं से ढंकने की कोशिश यहां दिखती है.
संकट में समाधान का भटकन इस भाषण में इस रूप में भी दिखता है, जब वे कहते हैं कि सामान्य नागरिक से लेकर राष्ट्रपति जी तक सभी ने लोक सभा-विधानसभा का चुनाव साथ-साथ कराए जाने के बारे में कभी ना कभी कहा है. आए दिन चल रहे चुनावी चक्र, उससे उत्पन्न आर्थिक बोझ, तथा प्रशासन व्यवस्था पर बने बोझ से मुक्ति पाने की बात का समर्थन किया है. अब समय आ गया है कि इसका रास्ता खोजा जाए. काला धन, भ्रष्टाचार व अन्य विकृतियां अर्थव्यवस्था और उसकी नीतियों से जुड़ी है. नीतियों को लेकर बहस होनी चाहिए न कि भुगतान के तरीकों को लेकर.
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