मुद्दा : आखिर कहां जाए जनता?

Last Updated 07 Jan 2017 01:34:34 AM IST

ये गुंडी कोठियां हैं, ये बेईमान कोठियां हैं, ये भ्रष्ट कोठियां हैं, ये आपराधिक कोठियां हैं, ये कालाधनार्थी कोठियां हैं, ये जनता के खून-पसीन की कब्र पर खंडी कोठियां हैं?


मुद्दा : आखिर कहां जाए जनता?

आखिर इन कोठियों को गुंडी क्यों कहा जाना चाहिए, आखिर इन कोठियों को भ्रष्ट क्यों कहा जाना चाहिए, आखिर इन कोठियों को अपराधिन क्यों कहा जाना चाहिए, आखिर इन कोठियों को कालाधनार्थी क्यों कहा जाना चाहिए? इसलिए कहा जाना चाहिए कि ये कोठियां ईमानदारी से नहीं खड़ी हैं, ये कोठियां कोई नैतिक बल पर खड़ी नहीं हैं, ये कोठियां कोई खून-पसीने के बल पर खडी नहीं हैं? फिर किस बल पर खड़ी हैं?

ये कोठियां निश्चित तौर पर गुंडेकर्म पर खड़ी हैं, ये कोठियां निश्चित तौर पर बेईमान कर्म पर खड़ी हैं, ये कोठियां निश्चित तौर पर अपराधकर्म पर खड़ी हैं, ये कोठियां निश्चित तौर पर काला धन पर खड़ी हैं, ये कोठियां निश्चित तौर पर भ्रष्ट धनकर्म पर खड़ी हैं. इन कोठियों की सच्चाई यह है कि ये कोठियां आम किसानों के भविष्य को उजाड़ कर, आम किसानों और गरीबों के सपने को कुचल कर खड़ी कराई गई हैं. हम उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की उन कोठियों की बात कर रहे हैं, जो कोठियां आभिजात्य वर्ग और गुंडे, अपराधी, बेईमान, भ्रष्ट, कालाधनार्थियों के लिए आन, बान, शान समझी जाती हैं.

इन कोठियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की जनता कितनी साजिशपूर्ण ढंग से लुटी गई है, लूटने वाले सिर्फ इंजीनियर, डॉक्टर, अफसर, अपराधी, गुंडे, ठेकेदार ही नहीं है, बल्कि जनता का भगवान समझे जाने वाले राजनीतिज्ञ भी और न्याय के ठेकेदार न्यायाधीश व अन्य न्यायविद् भी हैं. इन कोठियों की सुरक्षा के लिए कहीं पुलिसकर्मी खड़े हैं तो कहीं प्राइवेट सुरक्षा बल तो कहीं विदेशी खूंखार कुत्ते हैं. कोई ऐसा बड़ा राजनीतिज्ञ नहीं है, कोई ऐसा बड़ा इंजीनियर नहीं है, कोई ऐसा बड़ा डॉक्टर नहीं है, कोई ऐसा बड़ा ठेकेदार नहीं है, जिनका कोई एक, दो, चार आलीशान और लोकतंत्र का मुंह चिढ़ाने वाली कोठियां नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश की जनता गरीब है, परेशान है, उनके सिर पर ठीक ढंग के कपड़े तक नहीं होते हैं, गरीब जनता झोपड़ियों में रहती है, जीर्ण-शीर्ण मकानों में रहती है, गांव में जन सुविधाओं का घोर अभाव है, बिजली कभी-कभार ही नसीब होती है. पर उत्तर प्रदेश के नेताओं, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की चमचमाती गाड़ियां, आलीशान कोठियां और उनकी पंच सितारा संस्कृति चरम पर है. इन्हें पहले जनता का नौकर कहा जाता था पर अब ये सही में जनता के भगवान और भाग्य विधाता बन गए हैं, जनता अब तो इनके रहमो-करम पर जिंदा रहती हैं. पूरे देश में ऐसी संस्कृति फैल चुकी है. ऐसी संस्कृति सिर्फ लखनऊ में ही नहीं है. पर ऐसी संस्कृति जो कायम हुई है, उसमें झूठ, फरेब और बेईमानी है. यह झूठ, फरेब, बेईमानी और अपराधी कुकृत्य खुद सरकार करती है. जब सरकार ही भ्रष्टाचार और बेईमानी पर उतर आती है तब जनता अपने आप को असहाय महसूस करती है.

आखिर जनता न्याय के लिए किसके पास जाए? दुखद यह है कि जिनके कंधे पर न्याय की उम्मीद होती है वही लोग जनता के सपनों को कब्र बना देते हैं, जनता का भविष्य चौपट करते हैं, जनता को तंगहाली में डाल कर अपनी तिजारी भरते हैं और अपने लिए पंचसितारा सुविधाएं हासिल करते हैं. झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश, महराष्ट्र, कर्नाटक तक मुआवजे की मांग को लेकर आंदोलनरत किसानों पर लाठियां और गोलियां चली हैं, दर्जनों किसान पुलिस की लाठियों और गोलियों से मारे भी गए हैं. किसानों को गिरफ्तार कर जेलों में डाला गया है. किसानों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों को अपराधी और गुंडे खुद सरकार साबित कर रही है. बड़ी बात यह है कि किसानों की जमीन सरकार आवासीय समस्या को दूर करने के नाम पर लूटती है.

अगर सरकार किसानों से जमीन आवासीय समस्या को दूर करने के लिए लेती है तो फिर उस जमीन पर निजी कारोबार की अनुमति कैसे दी जाती है? सरकार तो अनैतिकता से भरी पड़ी होती है, इसीलिए तो सरकारें किसानों से जमीन लूट कर अपराधियों, गुंडों और नौकरशाहों आदि की किस्मत चमकाती है. हमाम में सब नंगे हैं. इसीलिए इनकी लूट बेपर्द नहीं होती. अगर कोई ईमानदार सरकार ऐसी कोठियों का सही में सव्रेक्षण करे और पता लगाए कि ऐसी कोठियां किन पैसों की बुनियाद पर खड़ी हैं तो फिर जेलें कम पड़ जाएंगी.

विष्णुगुप्त
लेखक


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