बाल अधिकार : कब खेलेंगे बच्चे
शिवपुरी, मध्य प्रदेश से आयी एक खबर को लेकर देश भर में बाल अधिकारों के लिए सक्रिय लोगों में जबरदस्त आक्रोश की स्थिति बनती दिख रही है.
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मालूम हो कि पिछले दिनों लगभग पचास बच्चों को, जिनमें अधिकतर अल्पवयस्क थे-तीन घंटे से अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया, क्योंकि वह खेलकूद के मैदान की मांग कर रहे थे. कहा जा रहा है कि यह समूचा प्रसंग बाल अधिकारों की रक्षा के राज्य में बने आयोग के अग्रणी के सामने हुआ, जब बच्चों ने कलक्टर द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इस सिलसिले में अपनी आवाज बुलंद की. गौरतलब था कि इन बच्चों को, जिनमें पांच लड़कियां भी शामिल थीं; एक ही साथ पुलिस वैन में ठूंसा गया, जबकि वहां कोई महिला पुलिसकर्मी भी मौजूद नहीं थी. अब जबकि यह खबर राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनी हैं तो संबंधित अधिकारियों की तरफ से कथित तौर पर लीपापोती जारी है, जबकि इन बच्चों ने उनके साथ हुई इस ज्यादती को लेकर बाल अधिकार संरक्षण के लिए बने राष्ट्रीय आयोग और केंद्रीय स्तर पर अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के यहां गुहार लगाई है.
मालूम हो कि बच्चों के खेलने के अधिकारों के बढ़ते हनन और इस सिलसिले में तमाम कानूनों को ताक पर रखने का यह कोई पहला प्रसंग नहीं है. कुछ समय पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने खुद पार्कों में बच्चों के खेलने के अधिकार की हिमायत करते हुए निर्देश दिए थे, मगर उसने बाद में पाया कि जमीनी स्तर पर कुछ भी हुआ नहीं है. यहां यह बताना समीचीन होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने दिल्ली उच्च अदालत को यहां के पार्कों की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा था, उसी पत्र को उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका में तब्दील कर अपना फैसला सुनाया था.
दो साल पहले मुंबई से इसी सिलसिले में आई एक खबर पर तो कहीं चर्चा भी नहीं हुई. सब कुछ इतना आनन-फानन हुआ कि बांद्रा के अलमीडा पार्क के बच्चों के खेलने के एरिया में जब शाम को बच्चे पहुंचे तो उन्हें इस बात का पता चला कि वहां मोबाइल टॉवर लगाया जा रहा है. निवासियों ने बच्चों की शारीरिक सुरक्षा और मोबाइल टावर के रेडिएशन के खतरनाक परिणामों को रेखांकित करते हुए इस पर आपत्ति दर्ज करानी चाही. मगर उन्हें महानगरपालिका के इंजीनियरों ने बताया कि उपरोक्त समूह को सभी किस्म की मंजूरी मिल चुकी है.
म्युनिसिपल कापरेरेशन के मुताबिक उपनगरीय मुंबई में लगभग 20 पाकरे एवं खेल के मैदानों में मोबाइल टावर्स लगाए जाने वाले थे, जो सभी एक ही प्राइवेट कंपनी के होने वाले चाहे शिवपुरी हो या दिल्ली या देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई खबरों की यह कतरने राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों के खेलने के अधिकार को दी गई मान्यता और वास्तविक स्थिति में बढ़ते अंतराल की ओर इशारा करती है. 1959 में राष्ट्र संघ ने बच्चों के अधिकारों पर घोषणापत्र जारी करते हुए उसमें खेलने के अधिकार को रेखांकित किया था.
वर्ष 1989 में उसे अधिक मजबूती दी गई, जब ‘कन्वेनशन ऑन द राइटस आफ द चाइल्ड’ पारित हुआ, जिसकी धारा 31 बच्चों के मनोरंजन, खेलने, आराम करने आदि अधिकारों पर जोर दिया गया था. कन्वेनशन पर दस्तखत करने के नाते यह राज्य की कानूनी जिम्मेदारी भी बनती है कि वह इसका इंतजाम करे, मगर न राज्य इसके प्रति गंभीर दिखता है, न हमारे यहां खेलने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है. मगर क्या खेलकूद के मैदानों पर कब्जा महज कापरेरेट मालिकानों या सरकारी नीतियों की अदूरदर्शिता का नतीजा है? निश्चित ही नहीं!
अब शहरों-महानगरों में कारों की बढ़ती संख्या के चलते आसपास के पाकरे की दीवारों को आपसी सहमति से तोड़ उसे पार्किग स्पेस में तब्दील करने की मिसालें आए दिन मिलती हैं. और महज कारें नहीं लोगों की श्रद्धा का दोहन करते हुए खाली जगहों पर प्रार्थनास्थल निर्माण करने का सिलसिला इधर कुछ ज्यादा ही तेज होता दिखता है. एक अनुमान के हिसाब से पार्किग के चलते शहर की लगभग दस फीसद भूमि इस्तेमाल हो रही है, जबकि राजधानी का वनक्षेत्र बमुश्किल 11 फीसद है. मैं 20 से अधिक स्थानों से वाकिफ हूं,जहां पार्कों को पार्किग स्पेस में या प्रार्थनास्थलों के निर्माण में न्योछावर कर दिया है. अब इलाके के बच्चे खेलने के लिए कहां जाएं, यह सरोकार किसी का नहीं है. प्रश्न उठता है कि क्या हमें अपने मौन से, विभिन्न स्तरों पर अपनी संलिप्तता से अपनी भावी पीढ़ी के साथ हो रहे इस अन्याय को लेकर अपनी आंखें मूंदी रखनी चाहिए या कुछ करना चाहिए?
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