मुद्दा : जश्न में छिछोरापन

Last Updated 04 Jan 2017 05:25:05 AM IST

बेंगलुरू में काम करने वाली मेरी भतीजी वहां की तहजीब, तमीज और साफ-सफाई की तारीफ करती नहीं अघाती.


मुद्दा : जश्न में छिछोरापन

आईटी प्रोफेशनल होने के कारण उसने वहीं बसने का मन बना लिया है. परिवार के वरिष्ठ सदस्यों द्वारा दिल्ली-एनसीआर या इर्द-गिर्द लौटने को जब भी कहा जाता, वह कंधे उचका कर यहां होने वाले यौन उपद्रवों की याद दिला देती.

देर रात काम से लौटने या रात की पाली में काम को लेकर वह हमेशा सुकून भरी बातें करती. यहां तक की ऊंचे वेतन के लोभ में वह इधर आने को राजी नहीं रही. वहां काम कर रहे या उच्च शिक्षा के लिए गए युवाओं का भी लगभग यही विचार रहा है. हो-हल्ले और वाहनों के चें-पें से दूर बेंगलुरू कामकाजी युवतियों के लिहाज से बेहतरीन है. लेकिन समृद्ध, शालीन, शिक्षितों द्वारा बेंगलुरू को अब तक जिन घिनौनी, घटिया दज्रे की हरकतों से दूर माना जाता था, उसे इस नये साल ने चिन्दी-चिन्दी कर डाला.

जश्न की रात, सार्वजनिक रूप से लड़कियों की जो छीछालेदर हुई, उस पर परदा नहीं डाला जा सकता. हैवानियत की यह रात किसी कोने-अंतरे में नहीं, अंधेरे में नहीं थी. यह सब बेंगलुरू के प्रसिद्ध एमजी रोड में सरेआम, ढेरों लोगों की मौजूदगी में हुआ. यह छेड़खानी सार्वजनिक थी. चारों तरफ पुरुषों की भीड़ थी. लड़कियां चीख-चिल्ला रही थीं. दरिंदों से बचने के लिए भाग रही थीं. उस जगह एक-दो नहीं, कई लड़कियां थीं. यह जश्न की रात थी. लोग मौज-मजे के लिए घरों से बाहर निकले थे. लड़कियों के कपड़े फाड़े गए. उनके नाजुक अंगों को नोंचा-खसोटा गया. वे बदहवास-सी भागती फिर रही थीं. पुलिस से मदद की गुहार लगा रही थी.

इसमें कोई संदेह नहीं कि हम अभी भी पुरुषवादी संकीर्णताओं को ढोने के लिए बेबस हैं. मौज-मस्ती और जश्न पर पुरुषों का कड़ा कब्जा है. स्त्री को सुरक्षा के लिए घर में ही कैद रहने की दलीलें देने वालों की कमी नहीं है. नशे में चूर उद्दंड पुरुषों की मानसिकता स्त्री पर कब फूट पड़े, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. नशेड़ी पुरुषों को संभालना पुलिस के बस का भी नहीं रह जाता. आमतौर पर पुलिस वालों का भी यही विचार होता है कि देर रात औरतों को घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं होनी चाहिए. नशा करने के लिए पुरुषों को हमेशा से खुली छूट रही है. उन परिवारों में भी, जहां औरतों के लिए तमाम पाबंदियां हैं, पुरुषों की उद्दंडता पर कोई लगाम नहीं है.

लड़कियां बाहर निकल रही हैं. उच्च शिक्षा लेकर, बेहतर जीवन चुन रही हैं.  बावजूद इसके खांटी रूढ़िवादी सोच वाले पुरुषों का समूह हमेशा इस ताक में फिरता है, कि वह स्त्री की देह को अपना शिकार बना ले. इस तरह के सोच वाले पुरुषों को स्त्री की यह तरक्की आंख की किरकिरी लगती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह जश्न नव वर्ष का न होकर होली या किसी आम मेले का होता तो भी स्त्री के साथ हील-हुज्जत करने वालों का हुजूम मौजूद रहता. औरतों के साथ सलीके से पेश आने का शऊर अभी भी पुरुषों में कम ही दिखता है. जो पुरुष इस तरह की अभद्रता नहीं कर पाते हैं, उनकी भाषा और बोल-चाल में स्त्री के प्रति अश्लीलता व निर्लज्जता साफ देखी जा सकती है. माननीय तो हमेशा की तरह, रटी-रटाई दुहाई देकर चलते बने. अपनी दिमागी क्षमता भर का गहन विश्लेषण करने के बाद उन्होंने दोहराया, यह सब पश्चिमी पोशाकें पहनने के कारण हुआ.

यह जो भीतर से निकला हुआ, शुद्ध पुरुषवादी विचार है; इस पर रोक कैसे संभव है? शायद ही कोई औरत भूली होगी, उप्र के बुजुर्ग नेता का बलात्कार पर दिया गया उदगार-कि लड़कों से ऐसी गलतियां हो जाती हैं. कुछेक साल पहले, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री ने तुनक कर मीडिया से कहा था, इतनी रात में निकलेंगी बाहर (लड़कियां) तो यही होगा. सत्ता के शीर्ष पर बैठे नुमाइंदों की बयानबाजी बताती है, स्त्री को लेकर इनकी सोच कितनी निचले पायदान पर ठहरी हुई है.

छेड़छाड़, छींटाकशी, अश्लील इशारेबाजी के खिलाफ तमाम नियम/कानून बन जाने के बावजूद पुरुषों में सलीका नहीं आया है. शहरों को स्मार्ट बनाने भर से या हर हाथ में मोबाइल सेट पहुंच जाने से दिमागी संकीर्णताएं व रूढ़िवादी संस्कारों को नहीं बदला जा सकता. उत्सव-आनन्द पुरुषों के लिए आरक्षित नहीं किए जा सकते. इस तरह की कोई भी घटना लड़कियों को मानसिक तनाव देती है और उनके स्वाभिमान को चोटिल भी करती है. आप उन्हें कुछ दें भले ही ना, पर जो उनके पास है, जो उनका अधिकार है, उस पर अपनी गंदी नजर न डालें.

मनीषा
वरिष्ठ लेखिका


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