इस गरज में कितनी ’बरस‘!
पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कयानी ने अमेरिका को गजब की धमकी दी है.
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उन्होंने कहा है कि उत्तरी वजीरिस्तान में एक तरफा सैन्य-कार्रवाई करने के पहले अमेरिका को दस बार सोचना पड़ेगा. क्यों सोचना पड़ेगा? क्योंकि पाकिस्तान के पास परमाणु-बम है. वह इराक या अफगानिस्तान नहीं है कि जिसे आसानी से कब्जाया जा सके. यह धमकी कयानी ने इसलिए दी है कि पिछले दिनों अमेरिकी सरकार ने पाकिस्तान को दो-टूक शब्दों में कहा है कि वह या तो सीमांत के कबाइलियों को काबू में करे अन्यथा वह उन पर सीधी सैन्य कार्रवाई करेगा.
इस तरह की सीधी कार्रवाई अमेरिका पहले भी करता रहा है लेकिन इस बार यह कार्रवाई जरा बड़े पैमाने पर होने के आसार हैं और इसके पीछे एक कारण पूर्व अफगान राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या भी है. अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पाकिस्तान आने के पहले अचानक काबुल पहुंच गई हैं. अफगानिस्तान भी बहुत बेचैन है. वह भी रब्बानी के हत्यारों को सबक सिखाना चाहता है. पाक-अफगान सीमांत पर इस समय ‘इसाफ’ और ‘नाटो’ की फौजों का जमावड़ा बढ़ गया है. यह त्रिकोणात्मक तनाव इस समय शिखर पर है.
अब तक इस सीमांत क्षेत्र का हाल यह था कि अमेरिका सीधे हमले करता था और पाकिस्तानी सरकार उसकी आलोचना करके अपना दायित्व पूरा कर देती थी. समाधान के लिए ठोस कुछ भी नहीं करती थी. अमेरिकी दबाव में आकर वह खुद भी लड़ाकू कबाइलियों पर हमला कर देती थी. इसमें उसके लगभग दो सौ अफसर भी मारे गये. लेकिन जब से ओसामा बिन लादेन मारा गया है, पाकिस्तानी फौज की इज्जत पैंदे में बैठ गई है.
औसत पाकिस्तानियों की नजर में पाक-फौज का स्थान बहुत ऊंचा है. वह फौज को ही अपने अस्तित्व का आधार मानती है. उसका सोच यह है कि फौज कितनी ही तानाशाह और भ्रष्ट क्यों न हो, वह उसके नेताओं से कहीं अच्छी है. पाकिस्तान के जीवित और सुरक्षित रहने की एकमात्र गारंटी फौज ही है. लेकिन पाकिस्तान की फौज और उसका गुप्तचर संगठन आईएसआई आखिर किस काम आए? उन्हें पता ही नहीं चला और उनकी नाक के नीचे घुसकर अमेरिकी ओसामा को मार गये. ऐसे में यदि अमेरिकी ओसामा को मार सकते हैं तो पाकिस्तान के परमाणु बमों को क्यों नहीं छीन सकते? वे पाक-परमाणु भट्ठियों को क्यों नहीं उड़ा सकते? वे वजीरिस्तान पर कब्जा क्यों नहीं कर सकते?
पाकिस्तान की जनता को अपने नेताओं पर अब जरा भी भरोसा नहीं है और यदि फौज पर से भी उसका भरोसा उठ गया तो पाकिस्तान को बिखरने से कौन रोक सकता है? इसीलिए पाकिस्तान की फौज आजकल इतनी मुंहफट हो गई है. पाकिस्तानी फौज तो अमेरिका के हाथ का खिलौना ही है. अमेरिका ने ही उसे पाला-पोसा और बड़ा किया है. वह अमेरिका की बिल्ली है और वह उसी से म्याऊं-म्याऊं इसीलिए कर रही है कि आज पाकिस्तान अपूर्व ऐतिहासिक संकट में फंस गया है.
पाकिस्तानी फौज बार-बार पाकिस्तान की संप्रभुता और स्वतंत्रता की दुहाई देती है लेकिन यह सबको पता है कि पिछले साठ वर्षों में पाकिस्तान अमेरिका का ‘भाड़ैती’ बनकर रहा है. हो सकता है, यह क्रम अब भी चलता रहे और यह पुरानी कहावत सही सिद्ध हो कि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और! यानी जनरल कयानी खुले तौर पर अमेरिका को ललकारते रहें और खुफिया तौर पर दुम हिलाते रहें.
अमेरिका ने भी लगभग यही किया है. पहले अमेरिकी सेना प्रमुख माइक मुल्लन ने सीधी कार्रवाई की खुली धमकी दी और फिर हिलेरी ने भी कह दिया कि हम पाकिस्तान को अपने पिछवाड़े में ‘जंगली पशु’ को पालने नहीं देंगे लेकिन पाकिस्तान जैसे ही गुर्राया, अमेरिका नरम पड़ गया. ऐसा लगता है कि दोनों देशों में गुर्राहट की प्रतिस्पर्धा चल रही है. दोनों का एक-दूसरे से विास उठ गया है. पाकिस्तान और जेहादी आतंकवाद की मिलीभगत में अमेरिका को अब जरा भी शक नहीं रह गया है.
इधर पाकिस्तान का अमेरिका से इतना ज्यादा उच्चाटन हो गया है कि वह हर मामले में चीन के साथ पींगें बढ़ाने लगा है. जनरल कयानी और आईएसआई मुखिया शुजा पाशा ने काबुल जाकर राष्ट्रपति हामिद करजई को सलाह दी थी कि अब जबकि अमेरिका वापस लौट रहा है, उस शून्य को वे चीन से भरवाएं.
इस तरह की बेजा सलाह पाकिस्तान क्यों दे रहा है? क्योंकि उसके दिमाग में भारत की दहशत बैठी हुई है. उसे डर है कि अब भारत अफगानिस्तान में अपनी दुकान जमाएगा. वहां पाकिस्तान का प्रभाव घटेगा. दोनों देशों के प्रभावों का यह उलट-संबंध ही पाकिस्तान की असली गुत्थी है. अफगानिस्तान में सोवियत प्रभाव के मुकाबले भारत का प्रभाव पाकिस्तान को ज्यादा खतरनाक मालूम पड़ता है.
यहां जरूरी यह है कि भारत सरकार जबर्दस्त पहल करे. पाकिस्तानी फौज के दिल में यह बात अच्छी तरह से जमाए कि उसे भारत से कोई खतरा नहीं है. दुर्भाग्य यह है कि हमारी सरकार के पास आज कोई ऐसा नेता नहीं है, जो पाकिस्तानी नीति-निर्माताओं के दिल में उतर सके. सरकार के बाहर कुछ लोग ऐसे जरूर हैं, जो इस काम को अंजाम दे सकते हैं लेकिन उनसे काम लेने की इच्छा और बुद्धि भी तो चाहिए.
जहां तक अमेरिका का प्रश्न है, वह पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई नहीं कर सकता. इराक, अफगानिस्तान और लीबिया के सबक उसे पता हैं. उसकी अर्थ-व्यवस्था यह नया बोझ नहीं ढो सकती. यदि 2014 तक ओबामा-प्रशासन अफगानिस्तान से नहीं निकला तो ओबामा का दुबारा चुनाव जीतना असंभव है. ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भाव पैदा करे और इन दोनों राष्ट्रों को अफगानिस्तान में मिलकर काम करने के लिए प्रेरित करे.
यदि पाकिस्तान बिल्कुल असहयोग करे तो उसे तालिबानी अफगानिस्तान की श्रेणी में डाला जा सकता है. यानी उसे आतंकवादी राष्ट्र घोषित कर उस पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. फौज क्या कर लेगी? क्या वह अमेरिका पर परमाणु बम चला देगी?
उसके होश अपने आप ठिकाने लग जाएंगे. ऐसा होने पर ईरान की तरह पाकिस्तानी जनता को भी काफी तकलीफों से गुजरना होगा जो अच्छी बात नहीं है लेकिन वह एक अल्पकालिक नश्तर होगा दीर्घकालिक सेहत के लिए! यदि अमेरिका गीदड़ भभकियां देता रहा तो वह इस खेल में पाकिस्तान से पिट जाएगा, क्योंकि भारत का पड़ोसी होने के कारण पाकिस्तान इस कला में काफी निष्णात हो गया है.
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