कानून को मुंह चिढ़ाती दबंगई
उन्होंने ट्वीटर और फेसबुक पर लिखा, फिर सुप्रीम कोर्ट में मीडिया के सामने प्रशांत भूषण को पीट डाला.
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अगले दिन भी पटियाला हाउस के बाहर भगवा पहने गुंडों ने कुछ लोगों को सरेआम निर्ममता से इसलिए पीटा कि उनके विचार मेल नहीं खा रहे थे. इसके दस दिन पहले जब पूरा देश बुराई के प्रतीक रावण के दहन की तैयारी कर रहा था, मुंबई में किराया बढ़ाने की मांग कर रहे तिपहिया स्कूटर चालकों को जगह-जगह पीटा गया.
असल में मुंबई में अधिकांश ऑटो रिक्शा चालक या तो उत्तर प्रदेश-बिहार के हैं या फिर मुसलमान. पहले राज ठाकरे ने पोस्टर लगा घोषणा कर दी कि यह काम करने वाले उनके कार्यकर्ता हैं. बाद में शिवसेना ने बाकायदा प्रेस वार्ता कर बताया कि यह काम उनके लोगों ने किया है और आगे भी करेंगे. न कोई कानून का डर, न ही नैतिकता की परवाह.
आजादी के बाद चुने हुए प्रतिनिधियों, नौकरशाही ने किस तरह आम लोगों को निराश किया, इसकी चर्चा अब मन दुखाने के अलावा कुछ नहीं करती है.
मान लिया गया है कि ढर्रा उस हद तक बिगड़ गया है जिसका सुधरना नामुमकिन है. भले ही हमारी न्याय व्यवस्था में लाख खामियां हैं, अदालतों में इंसाफ की आस कभी-कभी जीवन की सांस से भी दूर हो जाती है. इसके बावजूद देश को विधि सम्मत तरीके से चलाने के लिए लोग अदालतों को उम्मीद की आखिरी किरण तो मानते ही हैं. बीते कुछ सालों से देश में जिस तरह भीड़ या रूतबेदारों ने कानून-व्यवस्था के साथ खेलना शुरू किया है वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे आशंका जन्म लेती है कि कहीं पूरे देश का गणतंत्रात्मक ढांचा ही पंगु न हो जाए.
वर्ष 1997 में ही केरल हाईकोर्ट एक मामले में आदेश दे चुका है कि जनजीवन पर विपरीत असर डालने वाले बंद- हुड़दंग अवैध होते हैं. पिछले दिनों बंबई हाईकोर्ट ने भी वर्ष 2004 में भाजपा-शिवसेना द्वारा आयोजित बंद के मामले में सख्त आदेश दिए कि धरना-प्रदर्शन के दौरान यदि अधिकारी अदालत द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन करवाने में असफल रहते हैं तो उन्हें भी अदालत की अवमानना का दोषी करार दिया जा सकता है.
हाईकोर्ट की संबंधित बेंच ने स्पष्ट किया है कि किसी भी बंद का आह्वान करने पर उससे जुड़े नेता की पूरी जिम्मेदारी होगी. नेता को जनता के जीवन और संपत्ति की क्षति के लिए मुआवजा देना होगा. इससे पहले देश की दूसरी अदालतें भी समय-समय पर ऐसे आदेश देती रही हैं. लेकिन नेता हैं कि मानते ही नहीं. अधिकांश मामलों में पुलिस-प्रशासन भी हालात बिगड़ने का इंतजार करता रहता है. क्या यह सही धारणा है कि आम लोगों को परेशान करो तो सरकार हमारी आवाज जरूर सुनेगी?
सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि हमारे देश में हर साल सड़कों पर हंगामें की 56 हजार छोटी-बड़ी घटनाएं होती हैं. इनकी चपेट में आ कर कोई पचास हजार वाहन बर्बाद हो जाते हैं, जिनमें 10 हजार बस या ट्रक होते हैं. अकेले दिल्ली में साल भर में 100 से अधिक तोड़-फोड़ की घटनाएं दर्ज की जाती हैं. इन अराजकताओं के कारण समय पर इलाज न मिल पाने के कारण मौत होने, परीक्षा छूट जाने, नौकरी का इंटरव्यू न दे पाने जैसे किस्से अब आम हो चुके हैं और सरकार इतने गंभीर विषय पर संवेदनहीन बनी हुई है.
सड़क रोकने, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने, सार्वजनिक रूप से हंगामा करने को गैरकानूनी व अवैधानिक ठहराने वाली कई धाराएं व उन पर कड़ी सजा के प्रावधान हमारी दंड संहिता में हैं, लेकिन जब कानून बनाने वाले निर्वाचित प्रतिनिधि संसद व विधान सभाओं मे ही ऐसी सड़क-छाप हरकतें करते हैं तो सड़क वालों को यह करने से कौन रोकेगा?
लगता है कि रसूाखदार बनने की पहली शर्त यही हो गई है कि कानून के विरूद्ध कुछ न कुछ जरूर करो. राज ठाकरे जब अदालत के सामने मुजरिम के रूप में पेश होते हैं तो उन्हें कोई ग्लानि नहीं होती, बल्कि उनका नायकत्व झलकता है. आंधप्रदेश का एक सांसद कैमरे के सामने बैंक मैनेजर को थप्पड़ लगाते हुए उसको जायज ठहराने से नहीं चूकता हैं. एक केंद्रीय मंत्री पर हाईकोर्ट के जज को धमकाने के आरोप लगते हैं.
दरअसल, कानून तोड़ने वाले जानते हैं कि न्याय की मंथर गति के चलते उनके कृत्य का हिसाब होने में न जाने कितना वक्त लगेगा? दो साल पहले मुंबई में ‘माय नेम इज खान’ फिल्म के रिलीज होने पर कई सांसद-नेता टीवी पर लाइव बहस के दौरान सिनेमा घरों में हुड़दंग को न्यायोचित बताते देखे गए. हालांकि कानून की किताबें इसे दंडनीय अपराध निरूपित करती हैं.
क्या कानून असहाय हो गया है? या फिर समय की मांग है कि कानून की प्रक्रिया में बदलाव हो? देश की अदालतें बढ़ते मुकदमों के बोझ से दोहरी हो गई हैं. अब हमारे भारतीय साक्ष्य अधिनियम में आमूल-चूल परिवर्तन का समय आ गया है, जिसमें इलेक्ट्रानिक या अन्य किसी माध्यम पर दिए गए बयानों को इकबालिया मान कर उस पर सीधे कार्यवाही करना, साक्ष्यों की व्यक्तिगत से अधिक तकनीकी पुष्टि जैसी व्यवस्थाओं को सशक्त करना निहायत जरूरी है.
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