पहाड़ को कंधे पर उठाये नारी शक्ति

Last Updated 21 Oct 2011 12:38:01 AM IST

फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफएओ-संयुक्त राष्ट्र) का हालिया सर्वे एक बार फिर हिमालयी महिलाओं को दाद देता दिख रहा है.


एशियाई देशों की महिलाओं के श्रम योगदान पर आधारित इस सव्रे में पर्वतीय नारी को सर्वाधिक श्रम करने वाली बताया गया है. भारत, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान के हिमालयी क्षेत्रों की  महिलाएं न सिर्फ लीडर की भूमिका में हैं बल्कि यहां की आर्थिकी का आधार भी हैं. परम्परागत खेती व पशुपालन से जुड़े कामों के अलावा अब वे नए आयपरक कार्यों मत्स्य उत्पादन, बागवानी, वानिकी, मुर्गी पालन, भेड़ पालन, बांस की खेती व उस पर आधारित उद्योगों में भी काम कर रही हैं.

एफएओ के अध्ययन से पता चला है कि हिमालयी क्षेत्र में एक पुरुष प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेअर औसतन 1212 घंटे और महिला 3485 घंटे काम करती है. यानी महिला व पुरुष के काम का अनुपात 294 अनुपात 101 का है. कृषि में महिलाओं का योगदान 60 से 80 व अन्य गतिविधियों में 70 से 80 फीसद तक है. अध्ययन में महिलाओं को मिलने वाले मानदेय पर भी  चिंता व्यक्त की गयी है. उनके श्रम को बराबरी की अहमियत नहीं मिल रही है.

अध्ययन कहता है कि महिलाओं की भूमिका पलायन रोकने के साथ सामाजिक ताने-बाने को बिखरने से बचाने में भी है. वे बुजुगरे व बच्चों की देखरेख करती हैं. कृषि में सबसे अधिक भागीदारी हिमाचल और उसके बाद उत्तराखंड की है. बांस आधारित उद्योग में उत्तर पूर्वी राज्यों नागालैंड व मिजोरम आदि की महिलाओं को सर्वाधिक प्रगतिशील माना गया है. इस काम से कम श्रम देकर अधिक आय हासिल की जा सकती है.

अध्ययन में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व नेशनल सैंपल सव्रे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों का भी हवाला है. इसके मुताबिक 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में कुल श्रम शक्ति का 50 फीसद भाग महिलाओं का है. छत्तीसगढ़ बिहार और मध्य प्रदेश की महिलाएं पहाड़ की महिलाओं की तरह श्रम में बढ़े हिस्से की साझीदार हैं. पंजाब पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु व केरल में यह अनुपात 50 से कम है. उत्तराखंड में कृषि क्षेत्र में बुवाई, रोपाई और कटाई तक का दारोमदार महिलाओं पर है. सामान्यत: अस्थायी रोजगार को प्रवास पर गए पुरुष जुताई के समय गांव आते हैं, लेकिन बाकी समय महिलाएं ही कृषि कार्य करती हैं. यदि वह हल भी चलाना शुरू कर दें तो उनकी भागीदारी सौ प्रतिशत हो जाएगी.

अध्ययन सुझाव देता है कि यदि महिलाओं को आधुनिक उपकरण व वैज्ञानिक सलाह दी जाए तो श्रम व समय की बचत के साथ उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है. खासकर दुधारू  पशुओं के बारे में कहा गया है कि महिलाओं की दैनिक दिनचर्या का ज्यादातर समय चारा खिलाने, चारा लाने, दूध निकालने व मवेशियों की साफ सफाई में ही लग जाता है, लेकिन उस मात्रा में दूध का उत्पादन नहीं होता.

लेकिन अत्यधिक श्रम के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. अधिकतर एनीमिया की शिकार हैं. गोविंद बल्लभ पंत पर्यावरण एवं विकास संस्थान कोसी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. रणजीत सिंह का कहना है कि दक्षिण एशियाई देशों में कृषि व गैरकृषि कार्यों में महिला श्रम के योगदान को लेकर एफएओ के सव्रे में कहा गया कि हिमालयी राज्यों में महिलाओं का सबसे अधिक समय कृषि में लगा है पर इसकी तुलना में उत्पादन बहुत कम है.

सुनीता भास्कर
लेखिका


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