पुरस्कार मिलने से समाज की अपेक्षा बढ़ जाती है
अपनी उपलब्धि के लिए कोई पुरस्कार मिलने के बाद उस व्यक्ति से समाज की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं.
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मेग्सेसे ही क्या, कोई भी पुरस्कार पाने के बाद, समाज उस व्यक्ति से अधिक उम्मीद करने लगता है. लोगों की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. पुरस्कार पाने के बाद व्यक्ति के लिए बड़ी चुनौती होती है कि वह सभी की अपेक्षाओं पर खरा उतरे. एक सामाजिक कार्यकर्ता के नाते मुझे मैग्सेसे जैसे पुरस्कार का इतना महत्व जरूर लगता है कि अपने काम को और काम करने के तरीके को पहचान मिलती है और यदि कोई दूसरा व्यक्ति काम के मॉडल को अपनाना चाहे तो अपना सकता है. मैंने भी देश भर के अलग-अलग संस्थानों के साथ रहकर उनके काम करने के तरीके को लंबे समय से जानने और समझने की कोशिश की. अपने जीवन के अनुभव से जो कुछ सीखा है, आज समय है कि अपने गांव और कार्यक्षेत्र में उस अनुभव का उपयोग कर सकूं. 1995 में मैने डॉ. एसएस कलबाग सर के ग्रामीण विकास से जुड़े संस्थान में काम किया. उनकी वजह से ही देश घूमने और देश को समझने का मौका मिला. लगभग आठ साल तक उनके साथ काम किया, जो अनुभव की दृष्टि से मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण साल साबित हुए.
भारत में मैग्सेसे जैसे पुरस्कार की कमी महसूस होती है, इसमें कोई शक नहीं. चूंकि जो लोग समाज के अंदर रहकर सचाई और ईमानदारी से गांव-गांव काम कर रहे हैं, वह समाज के लिए काम करते हुए अपनी पूरी जिन्दगी लगा देते हैं. उनके काम और उनकी प्रतिबद्धता के संबंध में उनके समाज के बाहर के लोग नहीं जान पाते. मुझे लगता है कि इस तरह का काम करने वालों के मन में भी पुरस्कार के लिए लगाव नहीं है. जो लोग गांव-गांव काम कर रहे हैं, सामाजिक विकास में पीछे रह गए हैं, लोगों के हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं, पुरस्कार का मतलब उनके लिए एक प्लेटफार्म है, जहां से उनके काम को पहचान मिलती है. पुरस्कार उनके काम को लोगों तक पहुंचाने का जरिया बनता है. निश्चित ही भारत में इस तरह के प्लेटफार्म की कमी महसूस होती है. हमेशा से मेरे दिमाग में था कि जिन लोगों के बीच रहकर बड़ी हुई हूं, उसी समाज के बीच रहकर कुछ करना चाहिए. इसमें गांव वालों ने भी हमारी मदद की और हौसला बढ़ाया. सन 2000 में सबसे पहले विनोद भाई गांव आए. 2003 में मेरा आना हुआ, हेमराज भाई और उनकी पत्नी 2005 में आये और कारवां बनता गया. 2003 में अपने गांव बहादरपुर में 14 महिलाओं के एक स्वयं सहायता समूह के तौर पर प्रारंभ हुई यात्रा आज महाराष्ट्र के चार जिलों के दो सौ गांवों के दो हजार स्वयं सहायता समूह के रूप में विस्तार पा चुकी है.
‘भगिनी निवेदिता ग्रामीण विज्ञान निकेतन’ को शुरू करते हुए डॉ. कलबाग सर का दिया गुरुमंत्र मैं नहीं भूलती कि क्या करना है, यह तय करने से अच्छा है हम तय करें कि क्या नहीं करना है. इस तरह हमने तय किया कि सरकार से पैसा नहीं लेंगे. लोगों के बीच जाकर विकास क्या है और अपना विकास कैसे करें जैसे विषयों पर व्याख्यान नहीं देंगे. समाज के बीच सवालों का हल भी उनके बीच से निकलना चाहिए, न कि बाहर से लादा जाना चाहिए. लोग तय करें कि हल कैसे निकले. सबसे महत्वपूर्ण, हम योजना पर आधारित कार्यक्रम नहीं लेंगे, बल्कि मुद्दों पर आधारित काम करेंगे. मैग्सेसे से मिलने वाले पैसों को लेकर पहले से तय है कि जिस समाज के बीच रहकर काम करने की वजह से वह मिला है, उसे उसे ही वापस करना है. इस पैसे से गांव में बुजुगोर्ं के लिए एक आश्रम बनाना है. यहां कई बुजुर्ग हैं, जिनके परिवार में कोई नहीं है. युवाओं के लिए जिम तैयार कराना है. नन्दूरबार में ग्रामीण निधि के नाम पर दस लाख रुपए रखेंगे, जिससे कोई भी गांव में रहने वाला व्यक्ति जरूरत के मुताबिक पैसे ले सकेगा. और भी बहुत कुछ करना है.
प्रस्तुति: आशीष कुमार ‘अंशु’
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