रोकना मुश्किल होगा
दिल्ली की आम आदमी पार्टी (AAP) की सरकार केंद्र के अध्यादेश (Ordinance) के खिलाफ खड्गहस्त है। उसके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कल दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में एक रैली की।
![]() अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो) |
उन्होंने इस अध्यादेश के आने के बाद से ही केंद्र के विरु द्ध सशक्त विरोध का एक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक वातावरण बनाने के लिए राज्यों के दौरे पर दौरे किए थे। कल रैली में वे प्रदेशों के अपने समकक्षों को आगाह करते हुए उन्हें साधने की कोशिश की कि ‘‘आज मेरी बारी है तो कल तेरी आएगी।’’
उन्हें लगा होगा कि इस चेतावनी पर राज्य उनके साथ आए बिना नहीं रहेंगे। हालांकि मंच पर उनका मनचाहा घटित होते लगा नहीं। केवल कांग्रेस से टूटे-बिखरे विधिवेत्ता कपिल सिब्बल ही नजर आए। हालांकि दिग्गज मुख्यमंत्रियों ने मुलाकात में केजरीवाल के समर्थन में बयान जरूर दिया, पर वे हद से आगे नहीं गए।
वजह यह कि अन्य दलों के मुख्यमंत्री भी जानते हैं कि यह दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी की संलिष्ट शासन पण्राली के चलते है। लिहाजा, यह देश के किसी भी पूर्ण राज्य पर लागू होने वाला नहीं है। इसलिए दिल्ली की निर्वाचित सरकार को केंद्र से सद्भाव के माहौल में एक कामकाजी संबंध बनाए रखने में ही भलाई है और उसकी प्रगति है।
अजय माकन के जरिए कांग्रेस ने ठीक ही उलाहना दिया है कि अगर भाजपा एवं कांग्रेस के पूर्ववर्ती सरकारें इसी दायरे में सफलतापूर्वक सरकार चलाती रही हैं तो फिर केजरीवाल को ही क्यों दिक्कत हो रही है? दरअसल, केंद्र एवं दिल्ली सरकार के बीच अधिकारियों की तैनाती और तबादले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने 11 मई को एक फैसला दिया था।
इसमें राष्ट्रीय राजधानी में पुलिस, कानून-व्यवस्था और भूमि संबंधी मामलों को छोड़कर अन्य सभी सेवाओं का नियंत्रण दिल्ली सरकार को दे दिया था। पर केंद्र को यह निर्णय व्यावहारिक नजरिए से उपयुक्त नहीं लगा और उसने 19 मई को एक अध्यादेश लाकर इसे पलट दिया। इसके मुताबिक अधिकारियों की तैनाती-तबादले से जुड़ा अंतिम निर्णय लेने का अधिकार उपराज्यपाल को वापस दे दिया गया।
केजरीवाल इसे जनता का अपमान और हिटलरशाही बताते हुए संसद से पारित नहीं होने देने के लिए जोर लगा रहे हैं। लेकिन उनके रुख से सिद्धांतत: सहमति जताए जाने के बाद बावजूद संसद में अध्यादेश को रोक देने में किसी लामबंदी के कारगर होने की उम्मीद न के बराबर है।
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