अधिकार ही नहीं स्कूल भी दो
अब जाकर न्यायपालिका ने राजनीतिक दलों को आईना दिखाना शुरू किया है। कल तक केंद्र साकार के बड़े-बड़े अफसर जिन योजनाओं को लोकलुभावन कहकर राज्य सरकारों को श्रीलंका जैसी आर्थिक तबाही से आगाह कर रहे थे।
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सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को एक तरह से केंद्र से ही कह डाला कि सरकार को किसी भी योजना को लाते समय हमेशा उसके ‘वित्तीय प्रभाव’ को ध्यान में रखना चाहिए। न्यायालय ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम का हवाला देते हुए कहा कि यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहां एक अधिकार बना दिया गया है लेकिन पढ़ाई के लिए स्कूल कहां हैं?
न्यायमूर्ति यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब वह घरों में प्रताड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता प्रदान करने और उनके लिए देश भर में आश्रय गृह बनाने के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। पीठ ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम का उदाहरण रखते हुए कहा, हम आपको सलाह देंगे कि जब भी आप इस प्रकार की योजनाओं या विचारों के साथ आते हैं, तो हमेशा उनके वित्तीय प्रभावों को ध्यान में रखें।
पीठ ने केंद्र की अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) ऐर्या भाटी से कहा कि शिक्षा का अधिकार तो घोषित कर दिया गया, लेकिन जहां बच्चे पढ़ने जाएंगे वह स्कूल कहां हैं? स्कूलों को नगरपालिकाओं, राज्य सरकारों आदि विभिन्न प्राधिकरणों द्वारा स्थापित किया जाना है। स्कूल बन भी जाएं तो उन्हें शिक्षक कहां मिलते हैं? कुछ राज्यों में ‘शिक्षा मित्र’ हैं और इन व्यक्तियों को नियमित भुगतान के बदले सिर्फ लगभग 5,000 रुपये दिए जाते हैं। जब अदालत राज्य से इसके बारे में पूछती है, तो वे कहते हैं कि बजट की कमी है।’
एएसजी ने पीठ को बताया कि अदालत के पहले निर्देश के अनुसार मांगा गया विवरण रखने के लिए कुछ समय की जरूरत है। फरवरी में अदालत ने केंद्र को एक हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा था, जिसमें विभिन्न राज्यों द्वारा घरेलू ¨हसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत प्रयासों का समर्थन करने के लिए केंद्रीय कार्यक्रमों/योजनाओं की प्रकृति के बारे में विवरण मांगा गया था। टिप्पणी से स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय शिक्षा के हालात से पूरी तरह वाकिफ है। यहां सवाल उठता है कि शिक्षा को निजी क्षेत्र के चंगुल से आजाद कौन कराएगा?
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