धर्म संसद के बहाने
इन दिनों हिंदूवादी संस्था धर्म संसद गहरे विवाद में है।
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ताजा विवाद रायपुर में आयोजित धर्म संसद से संबंधित है, जिसमें कथित संत कालीचरण ने अपने भाषण में मुसलमानों के प्रति विद्वेषभरी बातें कहीं और साथ ही महात्मा गांधी को मुस्लिम परस्त और देश के विभाजन का जिम्मेदार ठहराते हुए उनकी हत्या के दुष्कृत्य को उचित ठहरा दिया और नाथूराम गोडसे को महिमामंडित कर दिया। अपने भाषण में हिंदुओं की कीमत पर पाकिस्तान के निर्माण तथा पड़ोसी इस्लामी देशों में हिंदुओं की बदतर स्थिति पर टिप्पणी करते हुए इस्लाम को देश के लिए खतरा बताया और हिंदुओं को एकजुट होने का आह्वान भी कर दिया।
इस तरह के विचार मात्र एक व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत तौर पर व्यक्त किए गए विचार नहीं हैं। हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो गांधी को देश विभाजन का जिम्मेदार मानता है। दूसरे अर्थ में पाकिस्तान के निर्माण में सहायक मानता है। उनका यही तर्क नाथूराम गोडसे को सही ठहरा देता है। अब प्रश्न यह है कि अगर भारत में यह विचार फैल रहा है तो यह अकारण नहीं है।
इसके मूल में बहुत कुछ है। देश के विभाजन में जो द्विराष्ट्रीय सिद्धांत गढ़ा गया था, उसकी काट न तो स्वतंत्रता आंदोलन से निकली, न गांधी के नेतृत्व से निकली और न ही कांग्रेस की विचारधारा से निकली। गांधी की हत्या के बाद देश पर शासन करने वाले नेतृत्व की यह अहम जिम्मेदारी बनती थी कि वह विभाजन के पीछे के विचारों को ऐतिहासिक तौर पर संज्ञान में लेता और गांधी के विचार से केवल भारत के ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान के मुसलमानों को भी जोड़ने का कार्यक्रमबद्ध आंदोलन चलाता, लेकिन उन्होंने देश के विभाजन को ऐसी घटना के रूप में लिया जो उनकी नजर में पूर्ण होकर निष्प्रभावी हो गई थी। उन्होंने इस्लामी कट्टरता का कभी कोई वैचारिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध खड़ा नहीं किया।
परिणाम यह हुआ कि दुनिया भर में जिस इस्लामी कट्टरपंथ का उदय हुआ और भारत में जिस तरह आतंकवादी हमले हुए, उसने भारत के उदार हिंदुओं को कट्टरपंथ की ओर धकेल दिया। संत कालीचरण, स्वामी धरमदास और साध्वी अन्नपूर्णा को गिरफ्तार करना और उन पर मुकदमा चलाना एक औपचारिकता हो सकती है, लेकिन यह समझना होगा कि समस्या जितनी गंभीर है, उसके लिए उतनी ही गंभीर और व्यापक सोच की जरूरत है।
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