चिंता का सबब
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने आशंका व्यक्त की है कि इस साल कोविड-19 महामारी की वजह से विश्व में करीब 5 करोड़ और लोग अत्यंत गरीबी के गर्त में जा सकते हैं।
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गुटेरेस ने जो आशंका व्यक्त की है वह भारत के लिए बहुत बड़ी चेतावनी है। यहां पहले से ही गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन-यापन करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। समाज में जाति व्यवस्था के प्रचलन के कारण आय के संसाधनों का समान वितरण नहीं है।
कोरोना वायरस महामारी के कारण शहरों के उद्योग धंधे ठप पड़ गए हैं। आजीविका और रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में शहर आए मजदूर गांव की ओर पलायन कर गए हैं। गांवों में रोजगार के साधन नहीं हैं। विडंबना यह है कि कोरोना वायरस महामारी के चलते आर्थिक गतिविधियों के रुकने या सीमित होने का सिलसिला लंबे समय तक चलने वाला है। जाहिर है भारत जैसे गरीब देशों के कामगारों के लिए जीविकोपार्जन दूभर हो सकता है। इस डरावनी स्थिति को देखते हुए लगता है कि अकेले भारत में ही गरीबी का यह आंकड़ा 5 करोड़ तक पहुंच जाएगा।
दूसरी ओर इस महामारी से उत्पन्न हो रही बेरोजगारी और गरीबी वैश्विक खाद्यान्न आपात स्थिति का जोखिम बढ़ा सकता है, जिसकी ओर गुटेरेस ने इशारा किया है। इसका लंबी अवधि तक करोड़ों बच्चों और युवाओं तक असर हो सकता है। भारत इसका अपवाद नहीं होगा। हालांकि भारत में लागू मनरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजना के तहत ग्रामीण मजदूरों के खाते में उनकी आय की धनराशि सीधे पहुंच जाती है। अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने कोरोना महामारी से लोगों को आर्थिक सुरक्षा दिलाने के लिए न्यूनतम आय का सुझाव दिया है।
उन्होंने अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘गुड इकोनॉमी फॉर हार्ड टाइम’ (विषम काल में अच्छा अर्थशास्त्र) में कोरोना महामारी जैसी स्थिति पैदा होने पर सरकार के संभावित प्रयासों का सुझाव दिया है। उन्होंने पुस्तक में यूनिवर्सल अल्ट्रा बेसिक इनकम (यूयूबीआई) का सुझाव दिया है, जिसके तहत लोगों के खाते में निश्चित धनराशि जमा कराई जाए। लेकिन भारत में 70 वर्षो के दौरान जो तंत्र विकसित हुआ है, उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि सरकारी प्रयासों से गरीबों की संख्या कम हो पाएगी। फिर भी सरकार और उसकी एजेंसियों की ओर से इस दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है ताकि संकट न बढ़े और बेरोजगारी और गरीबी के बढ़ते आंकड़ों को रोका जा सके।
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