हंगामा दुर्भाग्यपूर्ण
दिल्ली हिंसा पर संसद और उसके बाद राजनीतिक दलों का हंगामा किसी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है।
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विपक्ष की भूमिका सरकार को कठघरे में खड़ा करना है। किंतु सब कुछ लोकतांत्रिक मर्यादा में होना चाहिए। ऐसे संवेदनशील मामलों में, जहां इस समय आवश्यकता पीड़ितों के घावों पर मरहम लगाने, यथासंभव सहायता करने, उनके अंदर सुरक्षा का भाव पैदा करने, बढ़ती सांप्रदायिकता की खाई को पाटने की है, राजनीतिक पार्टयिां एक दूसरे के खिलाफ मोर्चाबंदी करें, इससे दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता।
संसद चर्चा के लिए है। दोनों सदन के अध्यक्ष चर्चा का समय निर्धारित कर रहे हैं, तो उसे मानने में हर्ज क्या है? संसद में तख्तियां लेकर पहुंचना, नारे लगाना आदि अवांछित हैं। राजनीतिक लड़ाई को इस सीमा तक न खींचा जाए कि संसदीय व्यवस्था ही तार-तार होने लगे। यही हो रहा है। दिल्ली हिंसा से हर संवेदनशील व्यक्ति का दिल दहला है।
जांच में साफ हो रहा है कि इसके पीछे सुनियोजित साजिश थी। जाहिर है, सभी राजनीतिक दलों को इसे समझना होगा। पुलिस प्रशासन की विफलता अपनी जगह है और संसद में जब बहस हो तो उसे तथ्यों और तकरे के साथ रखा जाना चाहिए। किंतु अगर साजिश करके हिंसा की तैयारी काफी पहले से की गई थी और उसे तय समय के अनुसार अंजाम दिया गया तो यह सभी दलों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
आखिर, ये शक्तियां कौन हैं, जो देश को सांप्रदायिक आग में झोंकना चाहती हैं? ये हमेशा राजनीतिक मतभेदों का लाभ उठाकर अपनी साजिश में एक हद तक सफल होती हैं तथा बाद में जांच एजेंसियों के सामने भी राजनीतिक विभाजन के कारण उपयुक्त कानूनी कार्रवाई में समस्याएं आती हैं। विडम्बना देखिए कि कहा जा रहा है कुछ राजनीतिक दलों का भी हिंसा में हाथ है। लेकिन ये भी आत्मचिंतन करने की जगह तख्तियां लेकर केंद्र सरकार विरोधी नारे लगा रही हैं।
बहरहाल, सरकार से मतभेद अपनी जगह है, लेकिन देश के दुश्मनों के खिलाफ दलों में एकजुटता दिखनी चाहिए। समाज विरोधी तत्वों का मनोबल तभी कमजोर होगा। राजनीतिक मोर्चाबंदी से इसके विरु द्ध संदेश निकल रहा है। वैसे भी सामाजिक-सांप्रदायिक सद्भाव और शांति अकेले सत्तारु ढ़ पार्टयिों की जिम्मेवारी नहीं है। सभी दलों को इसमें भूमिका निभानी है। इसलिए संसद में इसे केंद्र में रखते हुए बहस हो कि हिंसा रोकने में चूक कहां हो गई एवं आगे क्या किया जाए जिससे इसकी पुनरावृत्ति न हो।
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