आप्रवासियों से उम्मीदें
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल के अपने एक फैसले में तय किया है कि आप्रवासी भारतीय (जो भारत के नागरिक हैं) भी एयर इंडिया में शत-प्रतिशत निवेश कर सकते हैं।
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यानी आप्रवासी भारतीयों के पास एयर इंडिया की समूची मिल्कियत जा सकती है। पहले आप्रवासी भारतीयों को 49 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी खरीदने की इजाजत थी। अब शत-प्रतिशत मिल्कियत हासिल करने के लिए संभव है कि आप्रवासी भारतीयों की तरफ से एयर इंडिया खरीदने के लिए सकारात्मक प्रतिक्रियाएं आए। एयर इंडिया के साथ एक किस्म का भावनात्मक मसला जुड़ा है कि यह भारत सरकार की एयरलाइन किसी विदेशी के हाथों में ना जाए, भले ही आप्रवासी भारतीयों के हाथ में चली जाए।
हालांकि इस भावना का कोई तार्किक औचित्य नहीं है। आप्रवासी भारतीय भी निवेश के वक्त एकदम खालिस मुनाफे की बात देखते हैं, भारतीय या गैर भारतीय निवेश उनके लिए मूल मसला ना होता। एयर इंडिया को पूरा का पूरा शत प्रतिशत बेचने का प्रस्ताव रखकर केंद्र सरकार को उम्मीद है कि खरीदार आ जाएं। पहले सरकार शत प्रतिशत बेचने को राजी नहीं थी। जाहिर है कि आधी अधूरी खरीद में खरीदारों की रुचि नहीं थी।
कुल मिलाकर एयर इंडिया केंद्र सरकार के गले में बंधा ऐसा पत्थर बन गई है, जो उसके गले से निकल नहीं पा रहा है, सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद। ऐसे वक्त में जब कई नई एयर लाइन कंपनियां लगातार अपने कारोबार को बढा रही हैं, एयर इंडिया की मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं। सतत घाटा, मोटा कर्ज एयर इंडिया की सिर्फ दो समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि तमाम वजहों से इसका हाल ऐसा हो गया है कि इसे प्रोफेशनल तरीके से नहीं चलाया जा सकता। राजनीतिक दखल, अकुशल प्रबंधन, कर्मिंयों की दक्षता-ये तमाम ऐसे मसले रहे हैं, जिन पर चिंतन और कर्म की जरूरत लंबे वक्त से थी।
कोई और निजी कारोबार होता, तो डूब गया होता। जो रकम एयर इंडिया पर जा रही है, उसका कहीं और सार्थक इस्तेमाल संभव है। इसलिए एयर इंडिया को बेचना ही एक विकल्प नजर आ रहा है सरकार को। पर आधी अधूरी खरीदारी में ग्राहकों की रु चि नहीं दिखी, तो अब सरकार कह रही है पूरी हिस्सेदारी यानी शत-प्रतिशत ही ले जाओ। अब देखना होगा आप्रवासी भारतीयों को शत प्रतिशत खरीदने की छूट देने के बाद कितने ग्राहक आते हैं एयर इंडिया को खरीदने के लिए।
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