पुलिस पर दुधारी तलवार
सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली की हिंसा पर बेहद सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि अगर दिल्ली पुलिस पेशेवर तरीके से अपनी भूमिका का निर्वाह किया होता तो ऐसी स्थिति पैदा नहीं होती।
पुलिस पर दुधारी तलवार |
यानी शीर्ष अदालत ने पुलिस को एक तरह से आलोचना के कठघरे में खड़ा किया है। सर्वोच्च अदालत अपनी जगह पर सही है, लेकिन यह ऐसा समय है जहां पुलिस के लिए अपनी भूमिका सहजता से तय करना आसान नहीं है।
भारत ही नहीं, विश्व के किसी भी देश की पुलिस अगर उपद्रवियों के विरुद्ध कार्रवाई करती है तो यह सौ फीसद सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि उसकी कार्रवाई हर कानूनी मानक पर खरी उतरेगी। उसकी कार्रवाई में ज्यादतियां स्वाभाविक होती है। अगर पुलिस कार्रवाई में किसी भी तरह की ज्यादतियां होती हैं तो पुलिस के प्रति सहानुभूति नहीं होती। उसे तुरंत कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। अलीगढ़ में पुलिस कार्रवाई में उस पर ज्यादती के आरोप लगाए गए। जामिया में जो पुलिस कार्रवाई हुई उसकी भी कड़ी निंदा हुई और उसे न्यायालय तक में घसीटा गया।
शाहीन बाग के मामले में यह तय था कि यदि पुलिस कोई भी कार्रवाई करती तो उसको जबर्दस्त तूल दिया जाता और किसी की भी सहानुभूति पुलिस के प्रति नहीं होती। दूसरे, अगर कहीं भी कोई प्रदर्शन या प्रतिरोध सिर्फ पुलिस को उकसाने के लिए किया जाता तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है।
यानी पुलिस को दुधारी तलवार पर चलना होता है। अगर शीर्ष अदालत पुलिस के साथ-साथ राजनीतिक, सामुदायिक और धार्मिक नेतृत्व करने वाले लोगों पर भी जिम्मेदारी डालता तो कहीं ज्यादा उचित होता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुनियोजित ढंग से अशांति पैदा करने पर आमादा लोगों का नेतृत्व पुलिस की हर रणनीति को विफल करने में सफल होते हैं।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली की हिंसक घटनाओं से जो तथ्य निकलकर सामने आ रहे हैं, वह बताता है कि पुलिस कितनी भी चाक-चौबंद रहती, लेकिन उपद्रव नहीं रुकते। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने सड़कों पर उतरकर जो काम किया वह बेहद प्रशंसनीय है। अच्छा होता अगर उन्माद फैलाने वाले नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाती और साथ ही हिंसा की सुगबुगाहट की भनक लगते ही दिल्ली के मुख्यमंत्री, भाजपा और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्षों सहित स्थानीय नेता भी हिंसाग्रस्त इलाकों का दौरा करते तो शायद न निदरेष लोग मारे जाते और न इतने बड़े पैमाने पर आगजनी होती।
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