स्वागत योग्य समझौता

Last Updated 29 Jan 2020 12:37:44 AM IST

उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र, असम राज्य और बोडो आंदोलन के चार धड़ों के साथ त्रिपक्षीय समझौते से 1987 से जारी बोडो विवाद का पटाक्षेप हो जाएगा।


स्वागत योग्य समझौता

हालांकि 27 वर्षो में यह तीसरा बोडो समझौता है, और 1993 तथा 2003 के समझौते शांति स्थापित करने में नाकाम रहे। इस समझौते के खिलाफ भी दूसरे मूलवासी समूहों का विरोध शुरू हो गया है। राज्य के कुछ खास इलाकों में 12 घंटे का बंद भी आयोजित किया गया। दरअसल, इस समझौते के तहत बनने वाला बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र (बीटीआर) 1993 के समझौते से बनी बोडोलैंड स्वायत्त परिषद (बीएसी) की जगह लेगा तो नई बोतल में पुरानी शराब जैसा ही होगा।

बीएसी का क्षेत्र पश्चिम में सोंकोश नदी से लेकर पूरब में पचनोई नदी तक या ब्रrापुत्र के उत्तरी किनारे तक रहा है। इस पर बोडो आंदोलनकारियों में असंतोष है, वे पूर्ण राज्य की मांग करते रहे हैं। लेकिन पूर्ण राज्य की मांग कम से कम समझौते में शामिल गुटों ने छोड़ दी है। राजबंशी और दूसरे आदिवासी समूहों को इसलिए आशंका है कि बीटीआर में उनके अपने इलाके भी न आ जाएं।

इन समूहों में भी कई तरह के आदिवासी हैं। फिलहाल, यह बीटीआर संविधान की छठी अनुसूची में शामिल आदिवासी अंचलों की तर्ज पर ही बनेगा जिसे केंद्र से विकास के लिए राशि भी मिलेगी। दरअसल, असम की कहानी इतनी पेचीदी है कि उसे सुलझाने के चक्कर में हर सरकार फंस जाती है। हाल में असम समझौते के तहत वहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की पहल ही इस कदर उलझाऊ साबित हुई है कि राज्य और केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकारें उसमें उलझती जा रही हैं।

एनआरसी से 19 लाख लोग बाहर हुए और उनमें अधिकांश हिंदू ही हैं तो उन्हें मदद देने के लिए केंद्र को सीएए लाना पड़ा, जिसमें सरकार और फंस गई। असम में इसके विरोध के मद्देनजर उसे वहां के आदिवासियों और मूलवासियों को तरह-तरह से रियायतें देने की कोशिशें जारी हैं। कुछ इलाकों को सीएए के दायरे से पहले ही बाहर रखा गया है, तो उसी कड़ी में अब बोडो समझौते के जरिए एक खास वर्ग की आहत भावनाएं शांत करने की कोशिश की गई है। लेकिन इसके विरोध के मद्देनजर कहीं सरकार दूसरी पेचीदगी में न उलझ जाए। इस आशंका को  ध्यान में रखा गया है तो अच्छी बात है, वरना बोडोलैंड में असंतोष फिर भड़क सकता है।



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