न्याय की चौखट पर
नया नागरिकता कानून (सीएए) को लेकर पूरे देश में जिस तरह की विभाजनकारी सियासत हो रही है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में किसी तरह की जल्दबाजी न करना स्वागतयोग्य है।
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शीर्ष अदालत की तीन सदस्यीय बेंच ने तत्काल प्रभाव से इस कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगाने के अनुरोध को खारिज करते हुए सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए चार सप्ताह का वक्त देकर संसद की संप्रभुता का आदर और सम्मान किया है।
संसद लोकतंत्र का मंदिर है और कानून निर्माण करने वाली देश की सर्वोच्च संस्था भी है। नागरिकता संशोधन कानून संसद के दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद अधिसूचित भी हो चुका है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इस कानून को पारित कराने में सभी संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन किया गया। फिर भी इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली 143 याचिकाएं सर्वोच्च अदालत में दाखिल की गई हैं।
जाहिर है इस कानून को लेकर जिस तरह का ध्रुवीकरण हुआ है, उसे देखते हुए सरकार का पक्ष सुने और जाने बिना बगैर अमल में लाने से रोक देना न्यायसंगत नहीं होता। वैसे भी इस कानून का देश की कुल आबादी का एक छोटा हिस्सा वापस लेने की मांग कर रहा है। पश्चिमी विचारक जर्मी बेंथम का उपयोगितावादी दर्शन उस कानून को आदर्श कानून मानता है, जो अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख पहुंचाता हो। जाहिर है इस कानून में सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति हो रही है। बावजूद इसके अगर देश के एक तबके में यदि इस कानून को लेकर किसी तरह का संशय है तो उसे दूर किया जाना चाहिए।
हालांकि देर से ही सही, लेकिन सरकार की ओर से लोगों के बीच जाकर इस कानून को लेकर लोगों के भय और भ्रम को दूर करने की पहल की गई है। फिर भी वास्तविकता तो यह है कि इस कानून की आड़ में एक खास तरह की सियासत हो रही है जो सामाजिक सद्भाव में दरार डालने का काम कर रहा है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को नया नागरिकता कानून के गुण-दोषों की यथाशीघ्र समीक्षा करनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने इस कानून की संवेदनशीलता को समझते हुए पूरे मामले को पांच सदस्यीय बेंच को सौंपने का फैसला किया है। उम्मीद की जानी चाहिए विपक्षी दलों सहित इस कानून को वापस करने की मांग को लेकर आंदोलन करने वाले संयम का परिचय देते हुए सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार करेंगे।
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