पारदर्शिता का फैसला
प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से न्यायपालिका की कार्य-प्रणाली खासकर नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर बनी धुंध भी कुछ हद तक छंट सकती है।
पारदर्शिता का फैसला |
हालांकि कई किंतु-परंतु हैं। प्रधान न्यायाधीश की अगुआई में पांच जजों की संविधान पीठ के इस फैसले में न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने अपनी अलग राय में चेताया है कि सूचना का अधिकार कानून अदालत की निगरानी का औजार कतई नहीं बनाया जाना चाहिए। फैसले में भी कहा गया है कि सूचना आयुक्तों को आरटीआई की किसी अर्जी पर फैसला लेते वक्त न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निजता के अधिकारों को ध्यान में रखना चाहिए।
जाहिर है, इससे सूचना की सीमाएं तय हो जाती हैं। लेकिन ऐसे दौर में जब संवैधानिक संस्थाओं को लेकर तरह-तरह की शंकाएं व्यक्त की जा रही हों, पारदर्शिता बेहद जरूरी है। पिछले दिनों कॉलेजियम के फैसलों को लेकर ही कई तरह के विवाद या कहिए कि शंकाएं उभरीं। ताजा मामला मद्रास हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश वी.के. ताहिलरमानी के मेघालय हाइकोर्ट में तबादले का था, जिसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। इसलिए निर्णय-प्रक्रिया के, कुछ हद तक ही सही, सार्वजनिक होने से शंकाओं का कुछ समाधान हो सकेगा।
बेशक, सर्वोच्च अदालत का फैसला दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले के नौ साल बाद आया है कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार के दायरे में होगा। दरअसल, इससे उन स्थितियों में शायद न्यायपालिका को परोक्ष मदद ही मिल सकती है जहां कई बार कार्यपालिका से उसकी टकराहट की खबरें आती हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोटरे में जजों की नियुक्ति की निर्णय-प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि उसमें एक हिस्सा खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट का भी होता है। यहीं देखना होगा कि सूचना की अर्जियों पर कोर्ट का रवैया क्या रहता है।
वजह यह है कि आजकल सरकारी विभागों के बारे में कई आरटीआई एक्टिविस्टों की शिकायत है कि वे सूचनाएं देने में टालमटोल करते हैं, या उन्हें गोपनीय बताकर इनकार कर देते हैं। इसलिए फैसले पर अमल के लिए इन पांच जजों में से कम से कम तीन जजों न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना, डी.वाई. चंद्रचूड़ और संजीव खन्ना पर नजर रहेगी, जिनकी आगे प्रधान न्यायाधीश बनने की संभावना है।
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