जवाबदेही लीजिए
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मॉब लिंचिंग पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि यह पश्चिमी विचार है, और इस शब्द की आड़ में भारत और हिन्दू समाज को बदनाम करने का षड्य़ंत्र चल रहा है।
जवाबदेही लीजिए |
सरसंघचालक भागवत के इस मत से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि लिंचिंग एक विचार है, और पश्चिमी देशों की देन है। वास्तव में लिंचिंग विचार नहीं, सामाजिक विकृति है, और पिछड़े तथा दकियानूसी समाजों में यह विकृति ज्यादा फलती-फूलती है।
अज्ञानता के साथ-साथ जब क्रूरता और घृणा जैसे तत्वों का समावेश होता है तो इसकी पैदाइश होती है। पश्चिमी देशों के समाजों को हम चाहें कितना भी भला-बुरा कहकर कोसें, लेकिन उनकी सभ्यता और संस्कृति को असभ्य नहीं कहा जा सकता। हमें नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र, उदारता, समानता और भ्रातृत्व जैसे आधुनिक विचार पश्चिमी समाजों की ही देन हैं, जिसे आज पूरी दुनिया ने अपनाया है। अलबत्ता, यह कैसे कहा जा सकता है कि लिंचिंग पश्चिमी समाज की देन है?
दरअसल, किसी भी सभ्य समाज में लिंचिंग जैसी सामाजिक विकृति पैदा हो ही नहीं सकती। सरसंघचालक के इस विचार से तो सहमत हुआ जा सकता है कि लिंचिंग शब्द की उत्पत्ति भारतीय लोकाचार से नहीं हुई है, लेकिन सचाई तो यही है कि छह वर्षों से भारतीय समाज में लिंचिंग जैसे विकृति तेजी से बढ़ रही है। इस प्रवृत्ति के बढ़ने की एक बड़ी वजह यह भी है कि कानून और व्यवस्था के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है। लोग पुलिस में शिकायत करने की बजाय खुद ही आरोपी को अपराधी मानकर उसे सजा देने लगे हैं। सत्ता प्रतिष्ठान सिर्फ यह कह कर अपनी पीछा नहीं छुड़ा सकता कि यह पश्चिमी समाजों की देन है।
सत्ता प्रतिष्ठान को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना होगा कि आपके पास संवेदनशील, जागरूक और समझदार समाज बनाने के लिए क्या उपाय हैं। हालांकि जो राजनीतिक दल या संगठन मॉब लिंचिंग की घटनाओं को सीधे-सीधे सत्ता प्रतिष्ठान से जोड़ रहे हैं, वे भी गलतियां कर रहे हैं। ऐसा करके वे एक गंभीर सामाजिक समस्या से अपने आप को किनारे कर लेते हैं। कल तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस का भी इस सामाजिक विकृति को बढ़ावा देने में कम हाथ नहीं है। सत्ता और विपक्ष, दोनों को मिलकर इस सामाजिक विकृति को खत्म करने के लिए आगे आना चाहिए।
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